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समयसारदृष्टान्तमर्म
महापुरुषोंने किया है।
१६०-ज्ञानी जीव कर्मका फल ही नहीं चाहते, इसलिये कदाचित् ज्ञानीको पूर्वार्जित कर्मविपाकको भोगना भी पड़े तो उस समय होने वाली चेष्टाका कोई फल नहीं चाहता और 'ऐसी चेष्टा हो यह भी नहीं चाहता, यही कारण है कि वह कर्म या क्रियाफलको नहीं देनी है। अथवा, नो कर्मका फल नहीं चाहता उसे फर्म फल नहीं देते । जैसे कोई पुरुष नौकरीके लिये राजाकी सेवा करता है तो राजा उसे नौकरी (वेतन) देता है और जो नौकरीकी चाइसे राजाकी सेवा नहीं करता है उसे राजा नौकरी नहीं देता है।
१६१-ज्ञानी नीव सर्व भयोंसे रहित होते हैं, क्योंकि उनके पात्मा व पर द्रव्योंके स्वरूपसत्त्वकी दृढ़ प्रतीति होती है। यही कारण है कि वे सदा निःशङ्क रहते हैं और कदाचित् घोर उपसर्ग व परीषह भी पा जाय वो भी ज्ञानी ज्ञानोपासनासे चिगते नहीं। जैसे कि पाण्डव भादि महापुरुष कठिन उपसर्ग आने पर भी नहीं चिगे।
१६२-ज्ञानी नीव कर्मफलोंकी (सुखोंकी) वाञ्छा नहीं करते हैं, क्योंकि उन्हें स्वरूपसत्त्वकी दृढ़ प्रतीति है, आनन्दमय आत्मा है उसके अवलम्बनसे ही शुद्ध आनन्दविकासके होनेका उनके विशद अनुभव है। उपसर्ग या पाराम सुविधा होने पर भी ज्ञानोपासनासे नहीं चिगते हैं। जैसे कि अनन्तमती कितने ही फुसलाये नाने अथवा नाड़े नाने पर भी विषय सुखकी ओर नहीं गई।
१६३-प्रमत्त ज्ञानी जीवकी रुचि रत्नत्रय भावकी ओर रहती है, जिससे वे रत्नत्रयसे विरुद्ध भावो (वेदनाओं) मे खेद मानकर अधीर नहीं होते और न रलत्रयधारी अन्तरात्मावोंकी सेवामें ग्लानि करते । जैसे कि उहायन राजाने साधुकी रुचिसे, ग्लानिरहित होकर सेवा की।
१६४-ज्ञानी जीवकी निज शुद्ध पात्मतत्त्वमें प्रतीति, ज्ञाप्ति व चर्याकी भावना होती है जिसके वलसे वह शुभाशुभ भावों में व कुदेव,
, कुगुरुवों में संमोहित नहीं होता, जैसे कि ब्रह्मा आदिके व