Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 55
________________ (४८) सहजानन्दशास्त्रमालायां भाव आत्माको स्वभावसे ही कर्म करनेकी उत्सुकताके अभावकी स्थितिको स्थापित करता है । सो रागादिसंकीर्ण भाव आत्माको कर्तुत्वमें प्रेरक होनेसे वन्धक है व रागादिसे असंकीर्णभाव याने ज्ञानमय भाव रवभावका उद्भासक होनेसे केवल ज्ञायक है, बन्धक नहीं होना। १३६-जैसे पका फल पेड़के हेठलसे गिर जाय तो फिर ]ठलके सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार नो कर्मभाव अथवा कर्मोदयज भाव स्थानसे वियुक्त हुआ, वह फिर जीवमें सम्बन्धको प्राप्त नहीं होता। इस तरह ज्ञानमय भाव रागादिसे असंकीर्ण हो जाता है। १३७-अज्ञान अवस्थामें जो कर्म बद्ध हो गये थे, वे ज्ञानी जीवके आत्माके साथ वादमें भी कुछ समय तक रहते हैं, किन्तु वे अब ऐसे हैं जैसे कि पड़ा हुआ मिट्टीका पिण्ड । पड़ा हुआ मिट्टीका पिण्ड कुछ विभावका कारण नहीं होना । इसी तरह वे कर्म कर्माणशरीरसे ही वधे हैं याने कार्माणपिण्ड है, वह उपयोगसे या ज्ञानी आत्मासे नहीं बंधा है। तात्पर्य यह है कि जहां वास्त्रव दूर हुआ कि द्रव्यास्रव तो स्वत: हो भिन्न था, अब आत्मा निरासव हा गया, शुद्ध ज्ञायक हो गया। १३८-यद्यपि किसी अवस्था (गुणस्थान) तक ज्ञानी जीवके भी कर्म-वन्ध होता है, परन्तु वह ज्ञानीकी दशाके कारण नहीं, किन्तु उस जीवके जो राग विभाव शेष है, उसके कारण | वह राग बुद्धिपूर्वक नहीं है, इसलिये आसवका निपेध है, किन्तु वह ज्ञान-दशा जघन्य है, इससे अनुमान होता है कि अबुद्धिपूर्वक विभाव कलङ्क अवश्य है, यही आस्रव का वहां हेतु है । अतः तब तक अपनेको ज्ञानभावना होना चाहिये जव तव कि पूर्ण ज्ञानघन हो जाय । यहां पर आशंका होती है कि जव उसके अवृद्धिपूर्वक विपाक है, वद्ध कर्मोका सत्त्व है, उसका भी तो उदय होगा, तब उस ज्ञानीको निरास्रव क्यों कहा गया ? समाधान यह है कि जैसे किसी पुरुषका वाला स्त्रीसे विवाह हुआ तो इस अवस्थामें तो वह उपभोग के योग्य होती ही नहीं । जव यह वाला तरुण अवस्था पावेगी तव पुरुषके रागानुसार उपभोगने योग्य होगी। इस अवस्थामें यदि पुरुपके वैराग्यभाव

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