Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 45
________________ (25) सहजानन्दशास्त्रमालायां 1 आकर्षित होता है । जैसे कि कोई शिखरिन (दही मीठा मिला हुआ पेय) को पीकर उस स्वादकी गृद्धता से स्वादभेद न करके गायोंको दुहने लगता अथवा दूध पीने लगता है । १०४ - जैसे कि कोई प्यासा हरिण रेतीली नदीमें दूरकी रेवको पानी समझकर दौड़ लगाता है, उसके समीप पहुंचने पर प्यास चुकनेका तो काम कोई है नहीं, सो आगे फिर देखता है, सो दूरकी रेनका पानी सममकर फिर दौड़ लगाता है, इस पद्धतिमे वह दुःखी हो रहता है । यह क्लेश तभी तक रहता है, जब तक कि वह रेनको रेत नहीं समझ पाता है । इसी प्रकार अज्ञानी प्राणी इन्द्रियविषयभूत ज्ञेय पदार्थोंको अथवा विकल्पों को हितकारी समझकर उनकी ओर श्रार्पित होता है । उसके समी, पहुँचने पर आकुलता दूर होनेका तो काम कोई है ही नहीं, सो भावी विषयोंकी आशा करके फिर उनकी ओर आकर्षित होता । इस पद्धति में यह अज्ञानी जीव दुःखी ही रहता है। यह क्लेश तब तक रहना है जब तव यथार्थ वस्तुज्ञान नहीं कर पाता । 1 १०५ - जैसे कोई मनुष्य अज्ञानसे रस्सीमें सांपका भ्रम कर लेवे तो वह इस भ्रमके कारण उस साधारण अन्धेरीमें ही दौड़ भाग व भय करता है । इसी प्रकार अज्ञानी जन भी ज्ञमपदार्थोंको आत्मा मान अथवा विकल्पोंको आत्मा मानकर नाना सकल्पविकल्प बढ़ाता रहता है । १०६-- यद्यपि यह धात्मा शुद्ध ज्ञानमय है, तो भी जैसे वायुसे प्रेरित होकर समुद्र उछलती हुई तरंगो वाला हो जाता है, इसी प्रकार कर्मविपाकवश हुए अज्ञान से प्रेरित होकर यह अज्ञानी जीव नाना विकल्पों वाला होता है, प्राकुलिन होता है। इस प्रकार यह अज्ञानी जीव उन कर्मो का कर्ता होता है । १०७-- यह कर्तृत्व तब तक ही रहता है जब तक निन व परमें भेदज्ञान नहीं कर पाता है । और, जब जैसे कि हंस पानी व दूधके विवेक कर देता है, इसी भांति यह आत्मा निज व पर पदार्थके विशेषको

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