Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 46
________________ अथ कर्तृकर्माधिकारः ( ३६ ) जान लेता है; उसी समय वह परकी उन्मुखतासे हटकर स्वरसतः निज चैतन्यमात्र वस्तुका अवलम्वन कर लेता है और वह तन मात्र जानता ही है, करता कुछ नहीं है । अथवा वह ज्ञानक्रियाका ही कर्ता होना है । १०८ - जैसे कि आग गर्म है, पानी ठंढा है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन है ? ज्ञान | इसी प्रकार देह व कर्म अचेतन हैं, आत्मा चेतन है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । अथवा जैसे अग्नि सम्बन्ध को निमित्त पाकर गर्म हुए जल में यह समझकर लेना कि यह गर्मी तो है औपाधिक, संयागज और यह शीतस्वभाव पानीका स्वरस है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । इसी प्रकार औपाधिक भाव क्रोधादिक स्वभावानुरूप विकास ज्ञान इन दोनोंमें भेद है, इस प्रकारकी व्यवस्था करने वाला कौन है ? ज्ञान । इस ज्ञानभावका करने वाला क्रोधादिका कर्ता नहीं होता । यह इस ज्ञानीके बड़े ही चमत्कारकी बात है कि वह होते हुए क्रोधादिको भी जानता और निज ज्ञान विकासको जानता है और दोनोंको भिन्न भिन्न रूपसे । I १०६ - तथा जैसे नमक मिले हुए पकोड़ी आदि व्यञ्जनों में साधातथा ऐसा स्वाद आता है कि मानों व्यञ्जन ही खारा है, किन्तु उसमें |ह समझ वन जाय कि केवल व्यञ्जन तो जैसा है तैसा ही है और यह वारा नमक है, ऐसी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । इसी प्रकार इस प्रात्मामें कभी क्रोधादिक व ज्ञानविकास दोनों का उदय होता तो वहां नीजन तो भिन्न भिन्न स्वाद जानते हैं कि यह तो क्रोधादिक है और यह भाव है। इसकी व्यवस्था करने वाला कौन ? ज्ञान । श्रज्ञानसे ही यह जीव परको व परभावको अपनाता था। वहां भी परका तो कर्ता था ही हीं, उस विकल्पका ही कर्ता था । ज्ञानके उदित होनेपर अब उस विकल्प का भी कर्ता नहीं रहता । वास्तव में आत्मा स्वयं ज्ञानमय है, वह ज्ञानके अतिरिक्त क्या कर सकता । पर द्रव्यका या परभावका कर्ता आत्मा है, यह सोचना या कहना तो व्यवहारीजनोंका व्यामोहमात्र है । ११० - जैसे कि कोई पुरुष अपने विचार व व्यापार से घटादि पर

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