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अथ कर्तृकर्माधिकारः
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११५-जैसे कि कुम्हार मिट्टीमय घट में अपना कोई द्रव्य या गुण नहीं रख पाना ! उस घटमें तो मिट्टीका द्रव्य व मिट्टीका गुण ही स्वयं वर्नता है। अतः वह कुन्हार घटका कर्ता वास्तवमें है ही नहीं। इसी प्रकार आत्मा पुद्गलमय कर्ममें अपना कोई गुण या द्रव्य रख ही नहीं पाठा । कर्ममें तो पुद्गलका ही द्रव्य व पुद्गलका गुण ही स्वयं वर्तता है । अतः आत्मा ज्ञानावरणादिक कर्मका का वास्तवमें है ही नहीं। इसका कारण यह है कि नो पदार्थ अनादिसे जिस जिस द्रव्य व गुणमें बन रहा है, वह उसीमें ही बनता है, अन्य द्रव्य या अन्य गुण रूपमें से क्रान्त (परिवर्तित) कभी नहीं हो सकता । वस्तुतः न तो अज्ञानी परभावका का है और न ज्ञानी परभावका का है । अज्ञानी कर्तापनेके विकल्पको करता है, ज्ञानी कापनेके विकल्पको नहीं करता।
११६-फिर भी आत्मविभाव व पुद्गल कर्ममें निमित्तनैमित्तिक भाव है। इस आधारपर यदि यह कह दिया नावे कि आत्मा पुद्गल कर्मका कर्ता है, तो यह मान उपचार है । जैसे कि युद्ध में युद्ध तो योद्धा (सिपाही) लोग करते हैं, वे ही युद्ध परिणमनसे परिणम रहे हैं, किन्तु राजाके प्रसङ्गसे यह कह दिया जाता है कि राजा युद्ध कर रहा है, राजा तो युद्ध परिणमनसे परिणम ही नहीं रहा । तो यह कहना जैसे उपचार है। इसी प्रकार कर्मरूपसे तो पोद्गलिक कार्माणवर्गणायें परिणम रही हैं, किन्तु श्रात्मविभावके प्रसङ्गासे यह कह दिया जाता है कि श्रात्मा कर्म कर रहा है, आत्मा तो कर्मपरिणमनसे परिणम ही नहीं रहा । तो आत्मा ने कर्म किया, आत्मा कर्म करता है आदि कहना सब उपचार है।
११७-जैसे कि राजा उस लड़ाईके मुकाविलेको न ग्रहण करता है, न युद्धव्यापार-रूपसे परिणमता है, न युद्धको उत्पन्न करता है, न नया ही आदमी हथियार वगैरह कुल वना देता है और न योद्धावोंको हथियारों को बांध देता है फिर भी "राना मुकाबिला ग्रहण करता है, युद्धव्यापार परिणमाता है, युद्ध उत्पन्न करता है, योद्धावॉको करता है, योद्धावीको हथियारोंको वांधता है" श्रादि कहना उपचार है । इसी प्रकार आत्मा न