Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 23
________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां वर्णादिक व रागादिक भाव जीव नहीं है। ४१-जैसे सुवर्णक द्वारा रचा गया बाभूषण सोना ही है, वैसे ही पुद्गल नामकर्म द्वारा रचे गये वादर सूक्ष्म उस स्थावर श्रादि जीवस्थान पुद्गलं ही हैं, जीव नहीं हैं। ४२-सिद्धान्त शास्त्रोंमें ये सब जीवके भेदरूपसे कहे गये हैं, वे कुछ प्रयोजनवश कहे गये हैं। जैसे कोई पुरुप जन्मसे ही एक घीके घड़ेको समझता है । उसके सिवाय दुसरे घड़ेको जानता नहीं, नो उसे यथार्थ यात सममानेके लिये यही तो कहना पड़ता है कि "जो यह घोका घड़ा है सो मिट्टोमय है घृतमय नहीं है । इस तरह समझाने वाले उस घड़ेमें घोके घड़ेका व्यवहार करते हैं, क्योकि समझाया तो उन्हें जा रहा है जिसे 'घोका घड़ा" ही ज्ञान है । वैसे ही अज्ञानी जीयोंको अनादिसे ही अशुद्ध जीवका परिचय है । वे शुद्ध जीवस्वरूपको जानते ही नहीं हैं, सो उन्हें समझाने के लिये इस व्यवहारका आश्रय करना पड़ता है, कि देखो जो यह वर्णादिमान जीव है सो ज्ञानमय है. वर्णादिमय नहीं। चूंकि अज्ञानी जीवको वर्णादिमान नीव ही ज्ञात है । अतः इसके प्रतिबोधके प्रयोजनके लिये वादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त आदि संक्षावोंको जीवसंज्ञारूपसे सिद्धान्त शास्त्रोंमें कहा गया है। निश्चयसे वणोदिक जीव नहीं है। ४३-~-तथा यह भी सही है कि रागादिक भाव भी जीव नहीं है। जैसे यवपूर्वक होने वाले यव (जौ) यव ही कहलाते हैं, इसी प्रकार पौद्गलिक माहनीयकमके विपाकपूर्वकपना होनेपर होने वाले ये अचेतन रागादिक पुद्गल ही समझना, ये जीव नहीं है। भेदज्ञानियोने चैतन्य स्वभावसे भिन्नरूप ही उनका निर्णय किया है, सो रागादिक गुणस्थानादिक सब अचेतन हैं, अचेतन पुद्गल कर्मके उदयके निमित्तसे होते हैं, अतः रागादिक जीव नहीं है । जीवका लक्षण अनादि अनंत अचल चैतन्य ही है। रागादिक नीवमे अव्याप्त है, अमूर्तत्व जीवके अतिरिक्त आकाशादिक •ाम अतिव्याप्त है, सो ये दोनों लीवक लक्षण नहीं। जीवका निदोष ४ चैतन्य है।

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