Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 26
________________ अथ क कर्माधिकारः (१६) संस्कारको रखने में कोई समर्थ नहीं है, सो जैसा यह कामसंस्कार अशरण है । इसी तरह ससारी जीवके बद्ध कर्मके उदय होते ही औदयिक विभाव होकर नष्ट होते हैं, उन्हें फिर कोई एक पल भी रखने में याने बचाने में समर्थ नहीं है । किन्तु, यह आत्मतत्त्व स्वयं त्रिकाल सुरक्षित है, शरणभूत है। ऐसा अन्तरबोध तत्त्वज्ञानीके हो जाता है। यहां इतनी विशेषता जानना कि जैसे वीर्य निर्मोक्षसे कामसंस्कार सर्वथा समाप्त नहीं होता है, किन्तु कुछ क्षण बाद फिर कामविकार जागृत हो जाता है । यह कुभाव तो ज्ञान भावसे समाप्त होता है। इसी तरह कर्मोदय हो लेने पर विभावसंस्कार सर्वथा समाप्त नहीं होता है, किन्तु द्वितीय क्षणमें ही कर्मोदय निमित्तक विभाव फिर जागृत हो जाता है। विभाव तो ज्ञानभावनासे ही समाप्त होता है।। ___ इतने पर भी बात कहीं समाप्त नहीं होती, ये विभाव अपने काल में आकुलतास्वभावी होनेसे साक्षात् दुःखरूप हैं और इस निमित्तमे बंधे हुए.कर्मों का भविष्यकालमें जव उदय अथवा उदीरणा होगी उस कालमें भी दुःख भोगना पड़ेगा। अतः इनका दुःख ही फल है। किन्तु आत्मा अनाकुलस्वभावी है, अतः दुःखरूप नहीं है और न आत्मतत्त्व भविष्यकाल में किसी द्विविधाका कारण है, अतः इसका फल भी अनाकुलता ही है। ऐसा अन्तरज्ञान तत्त्वज्ञानीके हो जाता है। ५०-ऐसा अन्तरज्ञान होते ही कर्मोदय शिथिल हो जाता है याने विभाव शिथिल हो जाता है और आत्माका सहज चैतन्य शुद्ध विकास बढ़ जाता है । जैसे कि जब मेघपटल विघटित होते हैं तब दिशायें स्वच्छ हो जाती हैं और प्रकाश सर्वत्र बढ़ जाता है। __ इस प्रकार तत्त्वज्ञानी जीवके जैसे जैसे ज्ञानस्वभाव विशेष स्वच्छ व्यक्त होता जाता है, वैसे वैसे आस्रवोसे निवृत्ति होती जाती है और जैसे जैसे आस्रवोंसे निवृत्ति होती जाती है, वैसे वैसे विज्ञान घनस्वभाव व्यक्त होता जाता है। विज्ञान घनस्वभाव तव तक उन्नम्भमाण होता रहता है जब तक

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