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समयसारदृष्टान्तमर्म
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२८-जव यह जीव आत्मा और परके स्वरूपको यथार्थ जान जाता है सवको अपनेसे भिन्न मान लेता है तो ऐसा ज्ञान ही परपदार्थों का व परभावोंका त्याग है । जैसे दो पुरुप एक धोवोके अपने अपने चादर धोने हाल आये थे। एक पुरुष पहिले उसके यहांसे चादर उठा लाया, किन्तु वह दूसरे पुरुषकी थी उसे यह पता नहीं था सो उसको अपनी ही चादर समझकर उसे ओड़कर निर्भय सो गया । अव दूसरा पुरुप चादर उठाने को धोवीके गया तो उसे अपनी चादर न मिली-1 धोवी जो दे रहा था वह उसकी न थी। तव धोवीने वताया कि आपकी चादर अमुकके यहां पहुंच गई। दूसरा पुरुष पहिले पुरुषके घर गया वहां वह सो रहा था सो चादर का एक छोड़ पकड़कर झटककर दूसरा पुरुष कहने लगा कि भाई जागो जागो, यह चादर आपकी नहीं है मेरी है बदले में आ गई है। बार बार ऐसा कहा तब वह जागा और अपनी चादरके जो चिह्न थे, उन्हें देखने लगा । जव उसे अपनी चादरके चिह्न नहीं मिले तो वह उस चादरको उसी समय परकीय समझकर अलग कर देता है । शरीरसे हटाकर देने में चाहे विलंब हो जावे भीतरसे तो छूट ही चुकी। यहां देखलो-वास्तवमे ज्ञान ही त्याग है। वैसे ही यह आत्मा भ्रमसे कषायादिक औपाधिक भावोंको ग्रहण करके अपने मानकर अपनी आत्मामें निश्चय करके मोहनीदमे सोता हुआ स्वयं अज्ञानी वना । उसे जव श्री गुरु परभावका विवेक कराके उसे स्वयंके एक रूपका मान कराते हैं, जगाते हैं, हे
आत्मन् ! जल्दी जागो प्रतिवोध करो यह आत्मा एक चैतन्यमात्र है ये परभाव रे स्वभाव नहीं हैं । वार वार हितमय गुरुवाक्य सुनकर उसने समस्त चिन्होंसे भलीभांति परीक्षा की और निश्चित कर लिया कि मैं चैतन्य मात्र हूँ औपाधिकभाव में नहीं हूँ ऐसा ज्ञान व श्रद्धान हुआ कि उन सब परभावोंका त्याग हो गया । अव चाहे आत्मभूमिसे उनके हटने में चाहे कुछ विलंव भी लगे तो भी भीतरसे तो छूट ही गया। इसलिये ज्ञान ही प्रत्याख्यान याने त्याग है।
२६-मैं चैतन्यमात्र हूँ, मोह परभाव है। चैतन्यका और मोहका