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पत्नी भी साथ में थे। रास्ते में बीच जंगल में उनकी गाड़ी खराब हो गई । डाक्टर साहब को बड़ी परेशानी हुई। उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों से कहा तुम यहीं रहो, मैं पास के गाँव से कुछ लोगों को लेकर आता हूँ । पत्नी और बच्चे जंगल में अकेले रह गये । अचानक जंगल की झाड़ियों से लुटेरों का एक दल आ गया । उन्होंने गाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। गाड़ी में एक महिला और बच्चों को देखकर एक ने कड़कते स्वर में कहा - निकाल दो जो कुछ भी है। बंदूक - धारियों को देखकर डॉ. साहब की पत्नी और बच्चे सकपका गये। उन्होंने अपने जेवर और रुपये जो कुछ भी थे सब उतार कर दे दिये। इसी बीच डॉ. साहब भी आ गये । उसे गाँव में कोई सहयोगी नहीं मिला था, इसलिये वह अकेला ही आया था । लुटेरों को देखकर वह एकदम घबरा गया। तभी लुटेरों के सरदार ने डाक्टर साहब को पहचान लिया । पहचानते ही उसने हाथ जोड़कर कहा- डॉ. साहब ! मुझे क्षमा कर दीजिये । मुझे मालूम नहीं था कि यह आपकी गाड़ी है अन्यथा उसे हाथ भी नहीं लगाता । मुझसे गलती हो गयी । मुझ पर तो आपका बड़ा उपकार है। आपने तो मेरे बेटे को बचाया था । हम सबकुछ कर सकते हैं, पर कभी किसी के उपकार की अवमानना नहीं कर सकते, क्योंकि कृतघ्नता तो नरक का द्वार है । इसलिये मुझे क्षमा कीजिये । आपका जो समान है, हम सब आपको लौटाते हैं । इतना ही नहीं, उसने साथियों से गाड़ी को धक्का दिलवाते हुये गाड़ी को जंगल से बाहर करवा दिया ।
आज मनुष्य के पास सबकुछ है, भरा-पूरा परिवार है, धन-वैभव है, समाज में नाम / प्रसिद्धि है; परन्तु मन में शान्ति नहीं है? क्योंकि मानकषाय के कारण परस्पर में प्रतिस्पर्धा है । हम यह सोचते हैं कि जीवन की इस दौड़ में दूसरा मेरा साथी मुझसे आगे न निकल जाये ।
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