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लिये | फिर उसने विचार किया कि ये रुपये 250 हो जायें तो अच्छा है | तब सवा-सौ रुपये जोड़ने में तन्मय हो गया।
इस तरह ब्राह्मण पर आशा और लोभ का भूत सवार हुआ कि वह सेठ से भी अधिक धन संचय में लग गया । समय पर भोजन करना, सोना, विश्राम करना, सबकुछ भूल गया। तब सेठानी स सेठ बाला कि देखा निन्यानवे रुपये का चक्कर, ब्राह्मण की संताषवृत्ति कहाँ चली गयी?
इसी प्रकार सारा जगत धनसंचय के चक्कर में पड़कर न कुछ धर्म-ध्यान करता है, न परोपकार में कुछ समय लगाता है और न ही ठीक से विश्राम करता है। दिन-रात लोभ की चक्की चलाते-चलाते अपना अमूल्य समय नष्ट कर देता है । जीवन समाप्त हो जाता है, पर आशा समाप्त नहीं होती।
मनुष्य जीवन में जीवन के मूल्यवान क्षण यदि सफल करना हो तो आशा के दास मत बनो। सुबह होते ही सबसे पहले सामायिक फिर भगवान के दर्शन करो, पूजन करो, स्वाध्याय करो, फिर शुद्ध भोजन करके न्याय-नीति स व्यापार आदि करा | भाग्य पर विश्वास रखो, भाग्य से अधिक एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी। अतः इन लोभ आदि कषायों को दूर करो और हर परिस्थिति में संतुष्ट व प्रसन्न रहने का प्रयास करो।
जो ज्ञानी जीव होते हैं, व धन-दौलत को उतना ही महत्त्व देते हैं जितनी कि उन्हें आवश्यकता है। वे जड़ व चेतन के भेद को समझत हैं | इसी भेद-विज्ञान क कारण व जड़ के मध्य रहते हुये भी उससे अलिप्त रहते हैं। उन्हें इन्द्र का पद और स्वर्ग का वैभव भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता ।
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