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ही दुःख देता है । इस तप से राग-द्वेष के साधन नहीं रहते । मन शान्त रहता है ।
मुनिराज तो वन मं या कहीं भी किसी भी परिस्थिति में कंकरीली, पथरीली भूमि पर रात्रि के पिछले पहर में थोड़ी निद्रा लेते हैं ।
हम लोगों को भी चाहिये कि शरीर से ममत्व हटाकर कम-से-कम अष्टमी, चतुर्दशी, दशलक्षण आदि पर्वों में पलंग, गद्दे, तकिय आदि को छोड़कर चौकी, जमीन, चटाई आदि पर रात्रि व्यतीत करें । इस तप के बिना शरीर से ममत्व नहीं टूटता ।
6. कायक्लेश तप-गर्मी, सर्दी, वर्षा के स्थान में ध्यान करना, अनेक प्रकार के कष्ट सहते हुये समता - परिणाम रखना, सो कायक्लेश तप है ।
इस तप से विषय-कषाय की वृत्ति नहीं रहती, सुखिया स्वभाव नष्ट हो जाता है, ध्यान में स्थिरता आती है ।
इस तप के पालयता भी मुनिराज ही होते हैं । गर्मी के दिनों में कई-कई दिनों तक अन्तराय आने के बाद भी मन में खेद नहीं करते | आतापन योग, वृक्षमूल योग आदि कठिन कठिन तरीकों से ध्यान करते हैं ।
हम लोग भी अष्टमी, चतुर्दशी को एकान्त स्थान में या मंदिर आदि में जाकर आसन लगाकर यथाशक्ति सामायिक ध्यान आदि का अभ्यास करें। सेठ सुदर्शन भी गृहस्थ थे, वे पर्व के दिन में श्मशान, निर्जन वन में रात्रि व्यतीत करते थे, मुनिराजों के समान ध्यान लगाते थे ।
इन बाह्य तपों का आचरण करने से मन भोगों से हट जाता है, मन इधर-उधर नहीं जाता। दूसरी बात यह है कि यदि आराम से
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