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भयंकर युद्ध भी इसी परिग्रह के कारण ही हुआ । समस्त अनर्थों की जड़ यह परिग्रह ही है । वर्तमान समय में मनुष्य इस परिग्रह को संचित करने के पीछे पड़े हुये हैं । उसक पीछे नास्तिक से बनकर, अपनी समस्त धार्मिक क्रियाओं को छोड़ बैठे हैं। पर ध्यान रखना, अन्त में यह सब समागम छूट जाने वाला है। किसी नीतिकार ने लिखा है
धनानि भूमौ पश्वश्च गोष्ट, भार्या गृहद्वारे जनः श्मसाने । देहश्चितायां परलोक मार्ग, कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
यह धन भूमि में पड़ा रह जायेगा । स्त्री जिसे अर्द्धांगिनी कहते हैं, गृह द्वार तक ही साथ जाती है, दरवाजे से बाहर नहीं जाती है । तथा परिजन जिनके कारण अनेक पाप क्रियाओं में संलग्न रहते हैं, श्मशान भूमि तक ही साथ देते हैं । यह देह जिसको आप सजाते -संवारते हैं, अच्छा-अच्छा खिलाते हैं, चिता में जला दिया जाएगा। यदि जीव के साथ कोई जाने वाला है, तो वह मात्र जीव के द्वारा किया गया पुण्य और पाप । इसके अतिरिक्त कुछ नहीं जायेगा । इस बात को भूल कर समस्त जगत के प्राणी परिग्रह में ही आसक्त हो रहे हैं । परिग्रह से ही अपने आपको महान मान रहे हैं ।
किसी भी पर वस्तु में ममत्व नहीं रखना अथवा किसी भी पदार्थ को अपना नहीं समझना, आकिंचन्य है । पर का ममत्व ही समस्त दुःखों का मूल है । जब पर- पदार्थ को अपना समझा जाता है, तब उन पदार्थों के विनाश या वियोग से दुःख होता है । परन्तु जो किसी भी पदार्थ को अपना नहीं मानता उसे दुःख किस बात का । दुःख का मूल ममता है और सुख का मूल समता है । समताभाव को प्राप्त करने के लिये, परिग्रह का त्याग आवश्यक |
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