Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 768
________________ नाटक दिखने लगा। अभी उसे अभिनय करना पड़ रहा है, क्योंकि अभी वह स्व में ठहरने में असमर्थ है। परन्तु इस समस्त अभिनय के बीच वह जान रहा है कि इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है | उपयोग चाह उसका बाहर जाए, पर भीतर श्रद्धा यही रहती है कि मैं पर से भिन्न, अकेला, शुद्ध, चेतन हूँ | यदि उस यह कहा जाय कि तू इस शरीर को या कर्म को अपने रूप देख, तो वह कहेगा-कैसे देखू | जब मैं उन-रूप हूँ ही नहीं ता उस-रूप स्वयं को देखना तो सर्वथा असम्भव ही है | मैं तो अब अपन का ही अपने-रूप देख सकता हूँ | जिस प्रकार नाटक के बाद अभिनेता अपने अभिनय के वेश को उतार फैकते हैं, अपन असली रूप में आ जाते हैं, और शीघ्र ही अपने घर जाने की उन्हें सुध हो आती है, उसी प्रकार ज्ञानी भी सारा दिन संसार का नाटक करके सामायिक के समय अपने संसारिक वेश को उतार फेंकता है। यह शरीर रूप जो चोला धारण किया हुआ है, उसे भी स्वयं स पृथक कर समता परिणाम को प्राप्त करता है और चिंतन, मनन व ध्यान करता है कि मैं समस्त परद्रव्यों से भिन्न, शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा हूँ। इस एक निज आत्मा को जानने पर सब जान लिया और एक इस निज का न जानने पर कुछ नहीं समझा। ता यह मनुष्य भव बड़ी कठनाई स मिला है। इस भव में यहाँ-वहाँ के बहकावे में आकर या अपनी मौलिक परम्परा की पद्धति का आग्रह बनाकर हम यदि बाहरी-बाहरी उपयोग में ही समय गुजार दें, धर्म के नाम पर भी, तो हमने अपना जीवन खाया, और एक अपने आपके ज्ञान बल से अपने आपके ही स्वरूप को समझलें, तो हम अपने जीवन को सफल समझे । इस जीव की रक्षा ज्ञान से है, विषय-भोगों से नहीं। यदि

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