Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 767
________________ गया और हमने कहा कि आज से तेरा हमारा कोई संबंध नहीं और वह अलग भी रहने लगा। मुँह से कुछ ही कह दें, परन्तु हृदय तो निरंतर यही कहता रहता है कि कुछ ही कह ले, है तो अपना ही। और कल को यदि किसी दुर्घटनावश वह बहुत घायल हो जाये, तो खबर लेने पहुँच ही जायेंगे उसक घर | या हो सकता है कि तीव्र कषायवश न भी जायें, परन्तु निरन्तर वहीं ध्यान लगा रहेगा। जब लौकिक बातों में यह सम्भव है, ता परमार्थ में क्यों नहीं? ज्ञानी वचन व काय से लौकिक व्यवहार चलाता है, परन्तु मन उसका चतना से ही जुड़ा रहता है। वह संसार को नाटकवत् देखता है। नाटक में जिस समय अभिनेता गण अभिनय कर रहे हैं, उसी समय वे स्वयं अपने उस अभिनय के दर्शक भी होते हैं । अभिनय करते हुए भी वे लगातार यह जान रहे हैं कि यह तो अभिनय है। वहाँ भी दा धारायें एक साथ चल रही हैं। हम कह सकते हैं कि वे रोते हुए भी रोते नही हैं और हँसत हुए भी हँसते नही हैं। चाह गरीब का अभिनय कर रहे हों, चाह करोड़पति का, दर्शकों को अपनी उस भूमिका के दुःख-सुख को दिखाते हुये भी वे वास्तव में दुःखी-सुखी नहीं होते, क्योंकि अपने असली रूप का उन्हें ज्ञान है। अभिनय करते हुए भी निरन्तर अपनी असलियत उन्हें याद है। उसे वे भूले नहीं हैं, भूल सकते भी नहीं हैं और उन्हें यदि कहा जाए कि तुम जिसका अभिनय कर रहे हो, उस रूप ही अपने आपको वास्तव में देखने लगो, तो व यही उत्तर देंगे कि यह ता नितान्त असम्भव है, किसी हालत में भी यह नहीं हो सकता। यही स्थिति उस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की है, उसे परद्रव्यों स भिन्न दृढ़ श्रद्धान हुआ, अपने असली रूप का ज्ञान हुआ, अतः बाकि सब (752

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