Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 789
________________ है, पर तुम इसमे तृप्त मत होओ। अपने अन्तः में खोजो, सहज ज्ञायकस्वरूप को | उसमे लगाते हुये उसका आनन्द पावो । तो उन्हें अन्तः प्रयोग के लिये उत्साहित करना है। दुनिया अन्तस्तत्त्व का निरीक्षण नहीं करती । धार्मिक व्यवहार जो होता है, वह सब प्रवृत्ति में होता है। यदि प्रवृत्ति का लोप कर दिया जाये, तो उसके मायने है कि जो भावी संतान होगी समाज में, उन सब पर अदया की है, क्योंकि वे फिर कोई पेट से सीखकर तो आये नहीं निश्चय की बात । अरे! जो निश्चय की बात सीखी है, वह देखो व्यवहार में था । माता के साथ मन्दिर आये, विनय सीखी, गुरुजनों की भक्ति में रहे, अनेकानेक बातों में रहे और आज हम सीख गये परमार्थ की बात, तो हम दूसरों को तो उलझन में नहीं लगायें | जैसे हम बने, वैसे ही दूसरों को वें । तो प्रवृत्ति और व्यवहार इन सबको करते हुये एक भीतर का ज्ञान प्रकाश बनाने का ध्यान रखें। मैं आत्मस्वरूप को जानूँ, आत्मस्वरूप में तृप्त होऊँ, इसमें कौन बाधा देगा? प्रभु की भक्ति करें, संयम करें, व्रत करें, चारित्र न खोवें, तो क्या ये आत्मा के सम्यक्त्व में बाधा डालते हैं? अरे! ये कार्य तो एक मंद कषाय वाले हैं, इनमें बाधा का सवाल ही क्या ? बल्कि ये तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के पात्र बनाते हैं । जिसको स्वभाव दृष्टि करने का काम है, उसे तो सब कुछ करना होता है, और जिसे केवल गप्प मारने का काम है, उसको तो कवल गप्प ही मारना है। तो, भाई ! तन जाय, मन जाय, धन जाय, वचन जाय, प्राण जाय, कुछ भी जाये, पर हर तरह से तैयार रहें कि हमें तो शुद्धोपयोग की प्राप्ति करना है और शुद्धस्वभाव का लक्ष्य बनाना है, उसके लिये बढ़ते चले जाना है । 774

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