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उत्तम ब्रह्मचर्य
धर्म का दसवां लक्षण है-उत्तम ब्रह्मचर्य । अकिंचन्य धर्म में बताया था कुछ भी हमारा नहीं है, जितने भी विश्व के पदार्थ हैं वे मुझसे पृथक् हैं, इस परिग्रह से मरा कोई वास्ता नहीं | जब परिग्रह से हमारा काई वास्ता नहीं रहता, उसी समय यह आत्मा अपने स्वभाव में आ जाता है, इसी का नाम है ब्रह्मचर्य |
यह ब्रह्मचर्य धर्म समस्त धर्मों का राजा है, संसार से तरने के लिये नौका सदृश है, सुख-शान्ति का सागर है। जिस प्रकार मंदिर बनाने क बाद स्वर्ण-कलश चढ़ाते हैं, उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य धर्म पर चढ़ा हुआ कलश है | आचार्यों ने ब्रह्मचर्य का स्वरूप बताते हुए कहा है-"ब्रह्मणि आत्मनि चरतीति ब्रह्मचर्यम् ।” ब्रह्म अर्थात् आत्मा में चर्या करना, रमण करना, उसमें लीन हो जाना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
ब्रह्म कहते हैं सच्चिदानन्द भगवान-आत्मा को | आत्मा में रमण करन का नाम है, ब्रह्मचर्य और इसक विपरीत राग-द्वेषादि के कारण जो पाँचों इन्द्रियों सबन्धी विषय-वासना तथा भोग-सामग्री है, उसमें रमण करना व्यभिचार कहलाता है।
निश्चय से देखा जाये तो ब्रह्मचर्य का अर्थ आत्मा में रमण करना है, परन्तु व्यवहार में हम इसक अर्थ को बहुत ही संकुचित रूप में लेते हैं। आज हमने मात्र स्त्री के त्याग को ही ब्रह्मचर्य मान लिया है।
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