Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 764
________________ समस्त शास्त्रों का यही सार है कि "निज को निज, पर का पर जान फिर दुःख का नहिं लेश निदान | यदि यह सिद्धान्त हमने समझ लिया, मनन कर लिया तथा अपने में इसी सिद्धान्त की दृढ़ श्रद्धा रखी, ता दुःख तुमसे दूर रहेगा। आप अपने को अन्तस्तल के सुख सागर में गोते लगाते पायंगे। सुख है त्याग में और दुःख है किसी को अपनाने में, जबरदस्ती अपना बनाने में | अतः पर को अपनाने की जबरदस्ती छोड़ दो, ता दुःख छूट जायेगा। जब समस्त पदार्थ जुदे-जुदे हैं, फिर हम क्यों जबरदस्ती करते हैं उन्हें परस्पर संयाग में लाने की, उन्हें एकात्मक मानन की? वे अनादिकाल से पृथक् हैं, स्वतन्त्र सत्यवान् हैं और अनादि काल तक ऐसे ही रहेंगे। उनकी यह व्यवस्था हम नहीं बिगाड़ सकते | वे हमें नहीं परिणमाते और हम उन्हें नही परिणमा सकते | यह जबरदस्ती जो हम करते हैं, मिथ्यात्व से है और है राग-द्वेष से, और द:ख का कारण भी ता यही यह जीव स्वयं में परिणमन कर सकता है, स्वयं का ही कर्ता और भोक्ता है। कोई भी जीव अपन को छोड़कर अन्य में परिवर्तन नहीं कर सकता। स्वाधीन और सुखी होने का यही उपाय है कि हम अपनी इच्छाओं को रोकें | हम परपदार्थों को परिणमान की इच्छा करत हैं और सफल नहीं होते, तब दुःखी होते हैं। अतः दुःख की जड़ 'इच्छा' को ही काट डालना चाहिये | कौन किसके काम आते हैं? सब अपना ही कार्य करते हैं। द्रव्य, गुण, पर्याय का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त करो और उसी तरह पदार्थ को देखो। __ हम जैसा चाहत हैं, वैसा परिणमन असंभव है, बस, राना तो इसी बात का है और यही दुःख का कारण है। दुःख मिटाने का उपाय यह है कि इच्छा न करो । इच्छा का निरोध तब तक नहीं हो (749

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