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जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया, वह अवश्य एक दिन जन्म-मरण से विराम पायेगा । किन्तु यदि देव - शास्त्र - गुरु के माध्यम से जो जीवन में बाहरी उपलब्धि की वाँछा रखता हो, तो वही चीज उसे उपलब्ध हो सकती है, आत्मोपलब्धि नहीं ।
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समय के रहते 'समय' अर्थात् आत्मा को पहचानने का प्रयास करो । समयसार की व्युत्पत्ति आचार्यों ने बहुत अच्छी की है - समीचीन रूपेण अयतिगच्छिति व्याप्नोति जानाति परिणमति स्वकीयान शुद्ध गुण पर्यायान् यः सः समयः ।' • अर्थात् जो समीचीन रूप से अपने शद्ध गुण - पर्यायों की अनुभूति करता है, उनको जानता है, उनको पहचानता है, उनमें व्याप्त होकर रहता है, उसी मय जीवन बना लेता है, वह है- 'समय' और उस समय का जो कोई भी सार है, वह है - 'समयसार' । जिस समयासार साथ व्याख्यान का कोई सम्बन्ध नहीं रहता और कषाय का कोई निमित्त नहीं रहता । उसमें मात्र 'एक' रह जाता है, बस 'एक' में ही एक विराजमान हो जाता है । उस 'एक' का ही महत्त्व है । ताश खेलते हैं आप लोग, उसमें एक (इक्के) का बहुत महत्त्व होता है । उसी प्रकार 'एकः अहं खलु शुद्धात्मः' ऐसा कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है । ताश में बादशाह से भी अधिक महत्त्व रहता है उस इक्के का । 'एक' अपने आप में महत्त्वपूर्ण है, वह है - शुद्धात्मा ।
आचार्य श्री ने लिखा है कि मनुष्य जीवन एक प्रकार का प्लेटफार्म है, स्टेशन है । अनादिकाल से जो जीवन राग-द्वेष की ओर मुड़ गया है, उस मुख को हम वीतरागता की ओर मोड़ सकते हैं । और उस ओर गाड़ी को मोड़ सकते हैं तो इस (मनुष्य जीवन ) स्टेशन से ही । पर स्टेशन आ जाने पर आपको नींद आ जाती है। आपकी निद्रा
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