Book Title: Ratnatraya Part 02
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 736
________________ हम अपने उपयोग को लगाते हैं, स्नेह करते हैं, तो व मोही जीव भी मोहवश हमारी और आकृष्ट हो जाते हैं, तो यह मोह के आर्कषण की दुनिया है, यह तो है दुनिया की दुनिया । और अपने ज्ञान स्वभाव को निरखकर तृप्त होने वाली दुनिया है खुद की दुनिया, एक में असंतोष है और दूसरी में संतोष है । इतना होने पर भी संसारी प्राणियों को ऐसा मोह छाया है कि क्लेश पाते रहते है और क्लेश के कारणों में ही जुटे रहते हैं । विचार करो, हम निगोदादि कितने ही दंदफंदों को पार करके आज मनुष्य हुये हैं। मनुष्य भव का पाना ऐसा दुर्लभ है कि जैसे चौराहे पर गिरी हुई रत्नमणि का मिलना दुर्लभ है। चौराहे पर चारों ओर से लोगों का आना जाना बना रहता है, वहाँ पर किसी का गिरा हुआ रत्न कैसे पड़ा रहेगा? तो जैसे चौराहे पर रत्नमणि का मिलना दुर्लभ है, ऐसे ही नरभव मिलना दुर्लभ है। इस समय कितना अच्छा अवसर है कि हम अपने उपयोग को संभालें, विवेकपूर्वक रहें, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करें। तो कितना सुन्दर अवसर है कि हम अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं । मन में जब कोई शोक की लहर हो, जब कोई व्याकुल हो, जब मन विषयभोगों में भटक कर अशुभ कर्मों का बन्ध कर रहा हो, तब उसको शास्त्रों के स्वाध्याय में लगा दीजिये, अशुभ आस्रव तत्काल रुक जायेगा । शास्त्रों का स्वाध्याय करना बड़ा पवित्र कार्य है । ज्ञानाभ्यास के समय मन न तो किसी राग में फँसता है, न किसी द्वेष, क्षोभ, लोभ में अटकता है । प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये । स्वाध्याय कौन से शास्त्र का करना चाहिये, आचार्य समन्तभद्र महाराज कहते हैं — 721

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