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घिस तो घिसे, टूटे तो टूटे माल तो बनाना ही है, नहीं तो मशीनें हैं ही किसलिये ? टूट जायेगी तो मरम्मत कर लेंगे अधिक घिस जाने पर मरम्मत के योग्य नहीं रहेगी तो बदलकर और नई लगा लेंगे । शरीर के प्रति योगी का भी यही अभिप्राय है । आप मशीन समझकर 'मैं' रूप मान बैठे हैं इसे इसलिये इसके घिसने या टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से डरते हैं पर योगी इसे मशीन समझते हैं, जिसे उन्होंने शान्तिरूपी माल तैयार करने के लिये लगाया है । अतः वे इसके घिसने व टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से नहीं डरते । जब तक मरम्मत के योग्य है अर्थात् शान्ति प्राप्ति के काम में कुछ सहायता के योग्य है तब तक इसकी मरम्मत कर-करके इस भोजनादि आवश्यक पदार्थ दे-दे कर इससे अधिक-से-अधिक काम लेना । जिस दिन मरम्मत के योग्य नहीं रहेगा उस दिन इसे छोड़ देना अर्थात् समाधिमरण कर लेना । नया शरीर मिल जायेगा, उससे पुनः मोक्ष-मार्ग पर आगे बढ़ना । यही इस शरीर का सदुपयोग है ।
तप के प्रभाव से यहाँ ही अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, तप का अचिन्त्य प्रभाव है । तप बिना काम को, निद्रा को कौन मारे ? तप बिना इच्छाओं को कौन मारे ? इन्द्रियों के विषयों को मारने में तप ही समर्थ है। आशा रूपी पिशाचिनी तप से ही मारी जाती है, काम पर विजय तप से ही होती है। तप की साधना करने वाला परीषह उपसर्ग आदि आने पर भी रत्नत्रय धर्म से च्युत नहीं होता । तप किये बिना संसार से छुटकारा नहीं होता । चक्रवर्ती भी शल्य को छोड़कर तप धारण करके तीन लोक में वंदन योग्य / पूज्य हो जाते हैं। तीन लोक में तप के समान अन्य कुछ भी नहीं है । अतः अपनी शक्ति को न छिपाकर इन 12 प्रकार के तपों को अत्यन्त कल्याणकारी समझकर अवश्य ही करना चाहिये ।
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