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हैं कि शायद य मुद्रायें कम हैं इसलिये उस दरिद्र ने स्वीकार नही कीं । राजा ने कहा 200 मुद्रायं भेजी जायें ।
इस तरह वह पुनः 200 मुद्रायें मंत्री के हाथ भेजता है । मंत्री साधु के पास जाता है और मुद्रायं स्वीकार करने के लिये कहता है । किन्तु इस बार भी उस साधु ने वही उत्तर दिया कि जाओ इन्हें गरीबों में बाँट दो । मंत्री फिर राजा के पास आकर कहता है कि उसने स्वर्ण मुद्रायं स्वीकार नही की हैं । अब राजा सोच में पड़ जाता है कि क्या कारण है कि वह मुद्रायें स्वीकार नहीं कर रहा है । वह सोचता है, शायद उसने मंत्री के हाथों, स्वर्ण मुद्रायें स्वीकार करना अपना अपमान समझा हो, इस कारण मैं स्वयं ही वहाँ जाकर उन्हें ये दे आऊँ | इस प्रकार वह स्वयं 1000 स्वर्ण मुद्रायें लेकर उन मुनिराज के पास पहुँचता है और कहता है ये स्वर्ण मुद्रायें ले लीजिये । मुनिराज ने फिर वही बात कही जाओ इन्हें गरीबों में बँटवा दो । अब राजा बोलते हैं कि तुमसे गरीब मुझे और कौन मिलेगा। अब मुनिराज उत्तर देते हैं कि हे राजन् ! तुम नहीं जानते हम श्रीमन्त हैं, हमारे पास अनंत वैभव का भण्डार है, हम यह तुच्छ परद्रव्य स्वीकार नहीं करते हैं । राजा बोला- मुझे उसकी चाबी दे दीजिये, मैं भी वह अनन्त वैभव का भण्डार लूंगा । मुनिराज कहते हैं इसके लिये तुम्हें कुछ दिन यहाँ मेरे साथ रुकना होगा तब उसे पा सकोगे । राजा बोलता है, हाँ-हाँ रह लूँगा । इस तरह राजा मुनिराज के पास रहने लगा । मुनिराज कुछ धर्म का उपदेश उसे देते रहे। कुछ दिन बाद मुनिराज बोलते हैं कि अच्छा तुम्हें मेरा अनंत वैभव का खजाना देखना है तो मेरे जैसे बन जाओ। राजा ने सोचा यही विधि होगी अनन्त खजाने को देखने की, इसलिये वह मुनिराज बन जाता है। मुनिराज जैसी क्रियायें करने लग जाता है। अब उसे बड़ी शान्ति महसूस होने
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