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कर द्रव्य अहिंसा का भी पूर्णतया पालन करते हैं। साथ ही इष्टानिष्ट में राग-द्वेष उत्पन्न न कर भाव अहिंसा का भी पूर्णतया पालन करते
एसे साम्य भाव के धारी मुनिराज आज भी विद्यमान हैं। मुरैना की बात है, एक मुनिराज आये हुए थे | सायंकाल की सामायिक करने के लिए मुनिराज शीतकाल में भी खुले मैदान में ईटों के उपर रखी हुई पाषाण शिला पर विराजमान थे । मुनिराज सामायिक में लीन हो गय | कुछ समय पश्चात वहाँ एक भोला श्रावक आया, उसने विचार किया कि मुनिराज को सर्दी लगती होगी, उसी समय उसने घर से लाकर एक कायले की दहकती हुई अंगीठी उस पटिया क नीचे रख दी, जिसके ऊपर मुनिराज ध्यानारूढ़ थे । कुछ समय पश्चात् दहकती हुई सिगड़ी से पटिया लाल सुर्ख हो गया। परन्तु मुनिराज अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये | उसी पत्थर पर जलते रहे, तथा करते रहे चिन्तन निज आत्म स्वरूप का। सभी को अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर संयम धारण करना चाहिये । इन्द्रिय निग्रह ही संयम है और संयम ही मुक्ति का सोपान है। __मुनिराज भी पहल गृहस्थ ही थे । यह उनकी साधना का ही फल है कि आज वे पूर्ण संयमी बन सके | हम भी यदि क्रमशः संयमी बनने का पुरुषार्थ करें, तो देशसंयमी तो बन ही सकत हैं। इन्द्रिय-विषयां को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. आवश्यक 2. अनावश्यक | यह ठीक है कि आवश्यक विषयों का त्याग नहीं किया जा सकता है, पर हम अनावश्यक विषयों का त्याग कर आंशिक रूप से इन्द्रिय विजयी बनकर मोक्ष मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।
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