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उसका जीवन भी पवित्र हो जायेगा और जिसका मन अपवित्र हो गया, उसका जीवन भी अपवित्र हो जायेगा । इसीलिये तो कहा है कि "मनः एव मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो" बन्धन व मुक्ति का मूल कारण मन है ।
एक मुनिराज एक घर में आहार हेतु गये। आहार करके निकले तो देखा कि एक बच्चा कोयले- जैसे काले पत्थर से खेल रहा है । मुनिराज गृहस्थाश्रम में जौहरी थे। उन्होंने देखते ही कहा यह हीरा है । गृहस्थ ने पत्थर उठाकर देखा कि यह तो बड़ा भारी है । वह खुश हो गया कि इतना बजनी हीरा मेरे पास है। मुनिराज ने कहा - अरे ! यह हीरा अवश्य है, पर अभी उसको घिसना होगा, तराशना होगा, तब यह चमकीला मूल्यवान हीरा होगा। अभी तो निरा पत्थर है। इसी प्रकार पवित्र मन से शुद्ध आचार-विचार के दृढ़ पालन से तराशने पर ही यह आत्मा शुचिता को प्राप्त कर पाती है । अतः पर से दृष्टि हटाओ और सम्यक् स्वदृष्टि में अपना समय लगाओ, लोभ से हटो और इन इच्छाओं को रोको, तभी शौच धर्म जीवन में आयेगा |
'प्रकर्ष प्राप्त लोभन्नि वृत्तिः शौचं । प्रकर्ष लोभ की निवृत्ति शौच है । 'उत्कृष्टता समागत गाध्दर्य परिहरणं शौचमुच्यते ।' लोभ या गृद्धता का त्याग करना शौच धर्म है । अथवा संतोष का नाम शौच धर्म है। अतः अपनी इच्छाओं को रोककर संतोष धारण करो ।
संसार का हर प्राणी सुख चाहता है । पर सच्चा निराकुल सुख किसे कहते हैं, वह जानता नहीं है और मन की इच्छाओं को पूरा करके सुखी होने का प्रयास करता है । व्यक्ति अपनी इच्छाओं को जितना - जितना पूरी करता है, वे उतनी - उतनी और बढ़ती चलीं
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