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जब शाम को अकबर-बीरबल पुनः बाजार में घूमने निकल, तब अकबर ने कहा-बीरबल | आज तो वह वणिक बहुत ही खुश होगा। मैं उसे देखना चाहता हूँ | यह सुनकर बीरबल ने मुस्कराते हुये कहा-जहाँपनाह! इस मानव मन की बड़ी विचित्र गति है |
अकबर तो वणिक की उदास मुख मुद्रा देखकर बड़ा चकित हुआ | उसने तुरन्त ही वणिक को बुलाकर पूछा कि आज तो तरा सारा माल बिक गया है फिर तू उदास क्यों है? वह एक दम से रो पड़ा और बोला-जहाँपनाह! आपकी दया से मेर सारे कंबल बिक गये, अंतिम कंबल तो मेरा 250 रुपये में गया। अब मुझे पश्चात्ताप हो रहा है कि कितना अच्छा हाता जो मैं शुरू से सारे कंबल 250 रुपये में बेचता | यह बात सोच-साच कर मैं बहुत दुःखी हूँ | ___ अकबर यह सुनकर विस्मय से बीरबल की आर देखने लगा। तब बीरबल ने कहा-जहाँपनाह! यह मानव मन की कहानी है | जितना लाभ बढ़ता है, उतना लोभ भी बढ़ता जाता है | यह वणिक कल तक माल नहीं बिकने से परशान था, पर आज वह लोभ स परेशान है |
लोभ के कारण ही संसार क सभी प्राणी दुःखी हो रहे हैं। यह प्राणी मोहोदय के कारण परिग्रह को सुख का कारण मान रहा है, इसीलिये रात-दिन उसी के संचय में तन्यम हो रहा है। पास का परिग्रह नष्ट न हो जाय, यह लोभ है और नवीन परिग्रह प्राप्त हो जाये, यह तृष्णा है। इस प्रकार आज मनुष्य इन लाभ और तृष्णा दानों के चक्र में फँस कर दुःखी हा रहा है।
तृष्णा मनुष्य को सदैव अतृप्त बनाय रखती है | तृष्णा और तृप्ति दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। तृष्णातुर मनुष्य को चाह जितना भी लाभ क्यों न हो जाये, उसे कभी तृप्ति और संतुष्टि नहीं होती।
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