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प्रारम्भिक जीवन
"ध्यान देकर सुनो। यह एक पहाड़ी की तरह है । इसको क्रिया रहस्यपूर्ण है, जिसे मानव मन नही समझ सकता । मुझे अपनी अवोध आयु में ही यह पता चल गया था कि अरुणाचल की शोभा अद्वितीय है, परन्तु जब किसी दूसरे व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह तिरुवन्नामलाई ही है तब में इसका अर्थ नही समझ सका । जब मैं यहाँ पहुँचा तव मुझे अपार शान्ति मिली और जैसे ही में इसके और निकट पहुँचा, मेरा मन बिलकुल स्थिर हो गया ।"
यह घटना नवम्बर, १८६५ की है । उस समय श्रीभगवान् की आयु यूरोपीय गणना के अनुसार सोलह वप और हिन्दू गणना के अनुसार सत्रह वर्ष थी ।
इसके शीघ्र वाद दूसरी पूर्व-सूचना आयी । इस बार यह एक पुस्तक के माध्यम से आयी । दिव्य-सत्ता का आविर्भाव इस पृथ्वी पर सम्भव है, इम अनुभूति ने उसके हृदय को अवणनीय आनन्द से भर दिया। उसके चाचा कही से पेरिया पुराणम् की एक प्रति मांग लाये थे । इसमे त्रेसठ तमिल शैव सन्तो की जीवन-गाथाएँ हैं । वेंकटरमण ने जब यह पुस्तक पढी तव उसका हृदय अद्भुत आश्चय से भर उठा कि इस प्रकार का विश्वास, इस प्रकार का प्रेम और इस प्रकार का दिव्य उत्साह सम्भव है और मानव-जीवन मे इतना सौन्दय भरा पडा है । प्रभु मिलन के लिए प्रेरित करने वाली त्याग की कहानियो से उसका हृदय श्रद्धा और प्रशस्ति के भाव से आप्लावित हो उठा । उसे ऐसा अनुभव होने लगा कि कोई ऐसी वास्तविक सत्ता है जो सभी स्वप्नों से महान् है, जो सभी महत्त्वाकांक्षाओं से ऊँची है और जिसकी प्राप्ति सवथा सम्भव है । इस साक्षात्कार से उसकी आत्मा आनन्दमयी कृतज्ञता से पूण हो उठी ।
इसके वाद से श्रीभगवान् चिन्तन मे लीन हो गये । इस अवस्था में भक्त को अपने चारो ओर को दुनिया की सुध-बुध नहीं रहती, वह दृग और दृष्य के द्वैव से ऊपर उठ जाता है, शारीरिक और मानसिक भूमियो से ऊपर उठकर दिव्य चैतन्य की अवस्था मे पहुँच जाता है, परन्तु यह अवस्था शारीरिक तथा मानसिक शक्तियो के पूण प्रयोग के साथ सगत होती है ।
श्रीभगवान् ने अत्यन्त सरलता के साथ इसका वर्णन किया है कि किस प्रकार मदुरा में प्रतिदिन मीनाक्षी मन्दिर के दशनों के लिए जाते समय उनके मन में यह ज्ञान-धारा प्रवाहित होने लगी थी। उनके शब्दो मे, "पहले मैंने सोचा कि यह एक प्रकार का ज्वर है, परन्तु मैंने निर्णय किया कि अगर यह ऐसा है तो यह मधुर ज्वर है और इसे बने रहना चाहिए ।"