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स्वप्न
( ८७१ )
स्थरणचूत
स्वपन, स्वपनौ-देखो 'स्वप्न' ।
मावाज । बोल। ७ वेद पाठ में शब्दों का उतार चढ़ाव स्वपाळ (ल)-पु० [सं० स्वपाल] स्वर्ग का रक्षक ।
जो उदात्त, अनुदात्त पोर स्वरित तीन प्रकार का होता है। स्वप्न-पु० [सं०] १ सोना क्रिया या अवस्था, नींद । २ निद्रावस्था ८ नथूने से निकलने वाला पवन । ६ निद्रावस्था या सोते
में किसी घटना, विचार, चित्र प्रादि मस्तिष्क में प्राने समय नाक से निकलने वाला श्वास, खर्राटा । १० सात की स्थिति, झंझाल । ख्वाब । ३ निद्रा या तंद्रावस्था में की सख्या । [सं. स्वर] ११ स्वर्ग । १२ प्राकाश, सहसा पाने वाला विचार जो कभी सत्य व प्रायः असत्य अन्तरिक्ष । १३ सूर्य और ध्रव के बीच का स्थान । होता है । ४ कल्पना, मन की उड़ान । ५ एक लोक गीत । १४ एक व्याहृति । -बि०१क्षण भंगुर, नाशवान । २ मिथ्या ।
स्वरकळानिध (निधि, निधी)-स्त्री० [सं० स्वर+कला निधि] स्वप्नदोस-पु० [सं० स्वप्नदोष] निद्रावस्था में काम वासना | कर्नाटक पद्धति की एक राग। जागृत होने से होने वाला वीर्यपात, स्खलन ।
स्वरगगा-स्त्री० [सं० स्वर-गंगा] प्राकाश गंगा । स्वभाउ, स्वभाव-पु० [सं० स्वभाव १ अपना या निजी भाव, स्वरग-पु० [सं० स्वर्ग] १ अन्तरिक्ष में स्थित सात लोकों में
विचार । २ ऐसी क्रिया जो बार-बार स्वतः होती रहती, हैं, से तीसरा लोक, जहां देवता, पुण्यात्मा, सत्कर्मी निवास पादत, बान । ३ मूल भूत गुण, प्रकृति । ४ खासियत, करते हैं, देवलोक, वैकुठ । २ अन्य धर्मों के अनुसार विशेषता । ५ मनुष्य के मन का वह पक्ष जो बहुत कुछ पाकाश स्थित एक अन्य स्थान । ३ ऐसा कोई स्थान जहां जन्म जात होता है तथा सदैव देखने में प्राता है।
सर्वसुख की प्राप्ति होती हो । ४ प्राकाश, प्रासमान । स्वयं-वि० [सं० स्वयम् ] अपने-प्राप कार्य करने वाला। -सर्व ५ ईश्वर । ६ सुख । ७ देखो 'सरग'। -गमण, गमन-पु. माप, खद। -प्रव्य अपने प्राप।
स्वर्ग को जाने की क्रिया या भाव, मृत्यु । -गांभी-वि. स्वयं जोत (जोति, ज्योत, ज्योति, ज्योती)-पु० [सं०स्वयंज्योति] स्वर्ग को जाने वाला, मृत्यु को प्राप्त, मृत । -तरगिरण, परमेश्वर, ईश्वर, परब्रह्म।
तरंगिणी-स्त्री० प्राकाश गंगा । -तर, तरु-पु० कल्प स्वयंदूत-पु० एक प्रकार का नायक । (साहित्य)
वक्ष । परिजात । -----धेन, धेनु-स्त्री० कामधेनु । -नद, स्वयंदूती-स्त्री० एक प्रकार की नायिका । (साहित्य)
नदी-स्त्री० प्राकाश गंगा । -पत, पति, पती-पु० स्वर्ग स्वयंप्रम-पु० [सं०] १ जैनियों के एक तीर्थ कर । २ जैनियों का मालिक, इन्द्र । -पुर, पुरी-स्त्री. अमरावती, ८८ ग्रहों में से ६४वां ग्रह।
वैकुण्ठपुरी। -मंदाकनी, मंदाकिनी-स्त्री० पाकाश गगा । स्वयंप्रभा-स्त्री० [सं०] १ इन्द्र की अप्सरा व मंदोदरी की -लोक-पु० देवलोक, वैकुण्ठ । प्राकाश । -लोकेस,
माता। २ अर्जुन के स्वागत में इन्द्र सभा में नत्य करने लोकेसर, लोकेसु, लोकेसुर-पु. इन्द्र । तन शरीर । वाली अप्सरा।
-वधु, वधू-स्त्री. अप्सरा । -वास-पु. स्वर्ग या स्वयंभुव, स्वयंभू-पु० [सं० स्वयंमः] १ ब्रह्मा, विरंची ।। वैकुण्ठ में निवास । देवलोक, स्वर्ग । देहावसान, मृत्यु ।
२ शिव, महादेव । ३ विष्ण । ४ कामदेव, मनोज ।। -वासी-वि० स्वर्ग में रहने वाला । मृत्यु को प्राप्त, ५प्रथम मनु का नाम । ६ काल जो मूर्तिमान हो। स्वर्गीय । -विहारी-पु. देव, देवता। -गात्री-स्त्रो० ७ जैनियों के नौ बासुदेवों में से एक । -वि० अपने पाप अप्सरा । स्वतः उत्पन्न होने वाला।
स्वरगद-वि० [सं० स्वर्गद] स्वर्ग देने वाला। स्वयंवर-पु० [सं०] १ स्वयं वरण करने की क्रिया, स्वयंवरण । स्वरण-पु० [सं० स्वर्ण] १ सुवर्ण, सोना, कनक । २ धतूरा ।
२ ऐसा उत्सव या समारोह जिसमें उपस्थित होने वाले ३ कामरूप देश को एक नदी। व्यक्तियों में से कन्ग वर का चयन कर वरण करती है। स्वरगणकाय-पु० [सं० स्वर्णकाय गरुड़ का एक नाम।
३ इस तरह वरण करने का विधान । ४ विवाह, शादी। स्वरणकार-पु० [सं० स्वर्णकार] स्वर्ण के प्राभूषण बनाने व स्वर-पु० [सं० स्वरः] १ किसी प्रकार के प्राघात, गति,
व्यवसाय करने वाली एक जाति व इस जाति का व्यक्ति । संघर्षण या अन्य क्रिया से उत्पन्न ध्वनि, शब्द । २ किसी । सुनार । प्राणी की बोली, बोलने का शब्द, पावाज । ३ प्राकृतिक
| स्वरणगिर (गिरि, गिरी)-पु० [सं० स्वर्णगिरि] १ सुमेरु क्रिया से स्वत: उत्पन्न होने वाला घोष, गूज । ४ संगीत
पर्वत । २ लंका का दुर्ग। ३ जालौर का दुर्ग । ४ मगध में सप्तस्वरों में से कोई ध्वनि, सरगम की कोई ध्वनि ।
की प्राचीन राजधानी। ५ व्याकरण में 'अ' से 'म:' तक ध्वनियां जिनके योग से स्वरणचूड़-पु० [सं० स्वर्ण चूड़] १ नीलकंठ नामक पक्षी। व्यंजनों का उच्चारण होता है । ६ किसी वाद्य की | २ महादेव. शिव ।
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