Book Title: Purusharthsiddhyupay Hindi Author(s): Amrutchandracharya, Makkhanlal Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat ParishadPage 11
________________ प्रकाशकीय इस परमाणु युग में मानव के अस्तित्व को ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा को समस्या है। इस समस्या का निदान 'अहिंसा' से किया जा सकता है । अहिंसा जैनधर्म-संस्कृति को मूल आत्मा है। यही जिनवाणी का सार भी है। तीर्थंकरों के मुख से निकली वाणी को गणधरों ने ग्रहण किया और आचार्यों ने निबद्ध किया जो आज हमें जिनवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साधुगण जिनवाणी के स्वाध्याय और प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक थे सन्मार्ग दिवाकर, चारित्रचूड़ामणि परमपूज्य आचार्यवर्य विमलसागरजी महाराज। जिनकी अमृतमयी वाणो प्राणिमात्र के लिये कल्याणकारी रही है। आचार्यवर्य की हमेशा यही भावना रहती थी कि आज के समय में प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जायँ जिसे प्रत्येक श्रावक पढ़कर मोहरूपी अन्धकार को नष्ट कर ज्ञानज्योति जला सकें। जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी के प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो, आर्ष परम्परा को रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का शासन निरन्तर अबाधगति से चलता रहे। उक्त भावनाओं को ध्यान में रखकर परमपूज्य ज्ञानदिवाकर, वाणीभूषण उपाध्यायरत्न भरतसागर जी महाराज एवं आर्यिकारत्न स्याद्वादमतो माताजोको प्रेरणा व निर्देशन में भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् ने सन्मार्ग दिवाकर महोत्सव के अवसर पर आर्ष ग्रन्थों के महत्त्वपूर्ण उपयोगी ग्रन्थों का प्रकाशन किया जा रहा हैं। ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका अमूल्य निर्देशन एवं मार्ग मिला है, वे पूज्य उपाध्याय भरतसागर जी महाराज एवं माता स्याद्वादमती जी हैं। उनके लिए मेरा क्रमशः नमोस्तु एवं वन्दामि अर्पण है। उन विद्वानों का भी आभारी हैं जिन्होंने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक/संपादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है। ग्रन्थों के प्रकाशन में जिन दाताओं ने अर्थ का सहयोग करके अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग कर पुण्यार्जन किया, उनको धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हुए। एतदर्थ उन प्रेस संचालकों को भी धन्यवाद देता हूँ। अन्त में उन सभी सहयोगियों का आभारी हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष में सहयोग किया है। ब्र० पं० धर्मचन्द शास्त्री अध्यक्ष, भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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