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- डॉ० हीरालाल रसीकलाल कापडिया, पं० धीरजलाल टोकरसी शाह आदि की पुस्तकों पर । एवं कई साहित्यिक, धार्मिक आर सामाजिक प्रकाशनों पर आपने प्रस्तावनाएँ लिखी हैं। यदि
सभी पर कुछ न कुछ लिखा जाएँ तो सम्भवतः एक नई पुस्तक तैयार हो जाए, अतः कुछ विशिष्ट विन्दुओं-प्रस्तावनाओं पर ही में अपना अभिमत प्रकट कर रहा हूँ।
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संगीत--निपुणता
सर्व प्रथम आपके वाल्य-जीवन की घटना मुझे आकर्षित करती है। आपने लधु, वाल्यावस्थामें ही टुभोई मे संगीत विद्या सीखने के लिए संगीतकार उस्ताद फैयाझ खाँ के भाणेज गुलाम रसूल खा साहिव जसे उता कोटि के संगीतकार से राग-रागनियों का विशिष्ट शिक्षण प्राप किया। उनके सान्निध्यमें ५० से अधिक रागोंका विशिष्ट अभ्यास किया और उसके आधार पर पं० सकलचन्द्रजी कृत सतरह भेदी पूजा को शास्त्रीय राग-रागनियों के. साथ समाजमें पूजा पढ़कर यश प्राप्त किया। डॉडिया रास और मोरली नृत्य का भी अभ्यास किया। संघ द्वारा अभिनंदित भी हुए। उसके पश्चात् वैराग्यभाव उत्पन्न होने के कारण १६ वर्ष की उम्र में वि० सं० १६८७ में आपने दीक्षा ग्रहण की और साधु-जीवन में आने के पश्चात परिश्रम से प्राप्त संगीत विद्या, जो आपको अति प्रिय थी, उसका झरना सदा के लिए सूख गया। यदि आप उस समय दीक्षित न होते अथवा दीक्षा ग्रहण के पश्चात् द्रव्य क्षेत्र काल भाव को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेवों की अनुमति से अपवाद स्वरूप इसका सतत अभ्यास चालु रखते तो निश्चित है कि भारत ही नहीं, विश्व के उच्च संगीतकारों में आपका भी स्थान होता।
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संग्रहणीरत्नम् ___ संवत् १६८७ में १६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् धार्मिक एवं संस्कृत आदि का अभ्यास प्रारम्भ किया। द्रव्यानुयोग, भूगोल और खगोल के दिग्गज विद्वान ३-३ आचार्यो-गुरुदेवों के सानिध्य में अन्य अभ्यास के साथ संग्रहणीरत्नम् का अभ्यास भी चालू किया। गुरुदेवों का प्रोत्साहन और प्रेरणा पा कर इस ग्रंथ का अनुवाद भी प्रारंभ किया। पदार्थो का स्पष्ट निर्णय करने के लिए तत्सम्वन्धित साहित्य और टीका ग्रंथों का अवलोकन कर संवत १९६३ में यह ग्रंथ प्रकाशित भी हआ। पंडित चन्दभाई एवं अन्य चित्रकारों आदि से वाल्यावस्था मे चित्रकला की ओर रुचि थी, फलतः संग्रहणीगत रेखा-चित्र भी तैयार किये। गुरुजनों और विद्वानों से परामर्श भी लिया और सुन्दर ७० चित्रों के साथ ८०० पृष्ठों में यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। भू-लोक विद्या सम्बन्धित इस ग्रंथ से जैन जगत के समक्ष आपकी