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अभिनन्दन
- साहित्य वाचस्पति म० विनयसागर
जैन चित्रकला, जैन मूर्तिकला और जैन अनुसंधान के क्षेत्र में ऐसा कौन सा नामांकित विद्वान है, जो ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध आचार्य प्रवर श्री विजय यशोदेवसूरिजी को न जानता हो अथवा उनका नाम न सुना हो ? इन्होंने अपनी सूक्ष्म पैनी दृष्टि से निर्णय लेते हुए अपने निर्देशन में जो असाधारण निर्माणकार्य करवाये है, वे वास्तवमें असाधारण ही हैं।
लगभग ४ दशक से मेरा उनके साथ सम्पर्क रहा है। सम्भवतः पहली बार जब ये वालकेश्वर में विराजमान थे, उस समय मिलना हुआ था और उनके वैदुष्य से मैं प्रभावित भी हुआ । सम्पर्क वरावर बना रहा। संयोग से जब मुझे यह ज्ञात हुआ कि जयपुर के प्रसिद्ध चित्रकार श्री बद्रीनारायणजी द्वारा चित्रित २४ तीर्थंकरों के चित्र जिनको पंडित भगवानदासजी जैन ने 'आदर्श जैन चौवीसी' के नामसे विक्रम संवत् १६६६ में प्रकाशित करवाये थे, उसके मूल चित्र पंडित भगवानदासजी से आपने क्रय कर लिये थे और वे आपके पास सुरक्ष हैं, प्राकृत भारती की यह अभिलाषा थी कि उन चित्रों का चौवीसी के नाम से पुनः प्रकाशन किया जाए । फलतः पालीताणा में उनसे मिलकर अनुरोध किया और उन्होंने उन चित्रों की ट्रांसपेरेंसी हमें भिजवाई और प्राकृत भारती ने उसी के आधार पर 'जिनदर्शन चौवीसी' प्रकाशित की। इसके पश्चात् तो आचार्यश्री से कई बार मैं मिला। उन्होंने सदा छोटे भाई के समान ही मुझे आदर-सम्मान प्रदान किया ।
संयोग की बात है कि ३० जुलाई २००४ को उनके दर्शन और उनसे मिलने के लिए जब मैं मुम्बई में उनके स्थान पर गया। उनके दर्शन कर हृदय अत्यन्त प्रमुदित हुआ। अचानक ही आचार्यश्री ने कहा- 'मेरे द्वारा लिखित प्रस्तावनाओं की एक किताव छप रही है ! इसका प्रकाशन कभी हो जाता किन्तु भावि - भ - भाव से तुम्हारे लिए ही यह प्रकाशन रुका है रहा । तुम्हें इस पुस्तक पर अपने विचार लिखने है ।' उनकी अनभ्रवृष्टि के समान कृपावृष्टि स्वरूप आदेश सुनकर मैं भाव विह्वल हो गया। इस कार्य के लिए सक्षम न होते हुए भी उनके आदेश को शिरोधार्य किया ।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्यश्री द्वारा लिखित ८० ग्रंथों- पुस्तकों की प्रस्तावनाएँ हैं। आचार्यश्री ने वहुत कुछ लिखा है, किन्तु पुस्तकों की प्रस्तावना के रूपमें ८० लेख ही हैं ।
प्रसन्नता की बात है कि इन प्रस्तावनाओं को एक जगह संकलित किया गया है। इनमें से स्वलिखित एवं अनुदित ग्रन्थों, आपके निर्देशन और परामर्श पर आधारित कई विद्वानों
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