Book Title: Prakrit Suktaratnamala
Author(s): Puranchand Nahar
Publisher: Puranchand Nahar

View full book text
Previous | Next

Page 36
________________ दुर्लभम् । दाणं दरिद्दस्स पहुस्स खंती इच्छा-निरोहो मण- इंदियस्स । पढमे वए इंदिअ-निग्गहो अ चत्तारि एआणि सुदुद्धराणि ॥४८॥ दानं दरिद्रस्य प्रभोः क्षान्तिरिच्छानिरोधो मनइन्द्रियस्य । प्रथमे वयसीन्द्रियनिग्रहश्च चत्वार्येतानि सुदुर्द्धराणि ॥ ४८ ॥ Munificance of a poor man, forgiveness of a master control of desires of mind, repression of sensual desires of early manhood (lit: first years of life) these four are difficult of attainment. नव अथ नवि अ होही पाएण ति-हुअणम्मि सो जीवो । जो जुव्वणमणुपत्तो वियार रहिओ सया होइ ॥ ४६ ॥ नाप्यस्ति नापि च भविष्यति प्रायेण त्रिभुवने स जीवः । यो यौवनमनुप्राप्तो विकाररहितः सदा भवति ॥ ४६ ॥ There is not and will not, scarcely, be a living being in all the three worlds, who having attained puberty, is always devoid of passion. मच्छ-पयं जल- मज्झे आगासे पक्खियाण पय-पंती । महिलाण हियय-मग्गो तिन्निवि विरला पयंपंति ॥ ५० ॥ * "लोए न दौसंति” इति पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130