Book Title: Prakrit Suktaratnamala
Author(s): Puranchand Nahar
Publisher: Puranchand Nahar

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Page 105
________________ २ प्राकृत- सूक्तरत्नमाला । सव्वं विलवियं गीअं सव्वं नहीं विडंबणा । सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा ॥ १६६ ॥ सर्व्वं विलपितं गीतं सर्वं नाट्य' विडम्बना । सर्वाण्याभरणानि भाराः सर्वे कामा दुःखावहाः ॥ १६६ ॥ All lamentations are so many songs, all dances are so much vexation, all ornaments are so much burden, all lustful desires bring on pain ( in the end ), चयंति मित्ताणि नरं कयग्धं, चयंति पावाई मुणिं जयंतं । चयंति सुकाणि सराणि हंसा, चएइ बुद्धी कुवियं मणुस्सं ॥१६७॥ त्यजन्ति मित्राणि नरं कृतघ्न, त्यजन्ति पापानि मुनिं यतमानम् । त्यजन्ति शुष्काणि सरांसि हंसाः, त्यजन्ति बुद्धिः कुपितं मनुष्यम् ॥ Even friends abandon an ungrateful man ; sins forsake an ascetic, careful in saving the lives of living beings; swans forsake dried up tanks and intelligence quits an angry person. बुद्धी अचंड भयए विणीयं, कुद्धं कुसीलं भयए अकित्ती । संभिन्न-चित्तं भयए अलच्छी, सच्चे ठियं संभयए सिरी य ॥ १६८॥ बुद्धिरचण्डं भजते विनीतं, क्रुद्धं कुशीलं भजते कीर्त्तिः 1 भिन्नचित्तं भजतेऽलक्ष्मीः सत्ये स्थितं संभजते श्रीश्च ॥ १६८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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