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११७ एम जाणतो थको पण किंम नथी करतो श्री जिनेश्वरे नपदे या जीव।
शो धर्म ॥१॥ जाणंतो इह जीवो। न कुणइ जिण देसिअं धम्म॥२॥ आज दिवसे आवते दिवसे आव मूढनर चिंतवे हे धन्यादिकनी ते वर्षे आवता वर्षने आवते वर्षे। प्राप्ती॥
अऊं कन्नं परं पुरारि। पुरिसा चिंतंति अच संपत्तिं॥ पण हाथमां आवेलु झरतु जे गलतु जे आपणु थायु ते नथी जल तेम।
जोता ॥२॥ __ अंजलि गयं व तोयं। गलंत मान न पिछंति ॥ हे आत्मा जे धर्मकार्य आव ते धर्मकार्य आज नीश्चे कर सीघ्रप ते दिवसे करवु धारे। णे ॥
जं कन्ने कायव्वं। तं अजं चित्र करेह तुरमाणा स्या माटे जे घणां बीघ्न नीचे न सांझनो वा पालना दिवसे एक मुहुर्त वा बे घमीमां। करवानो वीलंब करीस ॥३॥ __ बहु विघ्घोहु मुहुत्तो। मा अवरणं पमिकेह ॥३॥ धीकार वा विषादे के संसार चरीत्र तेहमां स्नेहरागे लीन थया ना वीनासी सनावनां। पण ॥ __ ही संसार सहावं। चरिअं नेहाणुराय रत्तावि ॥ जे पुर्वे बे प्रहरमां दिवा ते पाबलना बे प्रहरमां नथी दे जे संसार पदार्थ।
खाता ॥८॥ जे पुव्वणे दिन। ते अवरणे न दिसंति ॥४॥ हे जीव ते माटे न प्रमाद नीद्रा नासवान वस्तुनो कीस्यो वीस | मां सुइस अप्रमादरूप जाग। वास राखवो॥
मा सुबह जगिअव्वे। पला अव्वंमि कीस वीसमह।।
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