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हुए मुख्य मंदिर के द्वार के दोनों ओर के ताकों में से एक ताक में अब भी है *। इससे पाया जाता है कि उस समय
* इन दानों ताकोंपर एक ही आशय के ( मूर्तियों के नाम अलग ) लेख खुदे हैं। इनमें से एक की निम्नोक्त नकल है:
ॐ संवत १२९० वर्षे वैशाख वदो १४ गुरौ प्राग्वाट ज्ञातीय चंड प्रचंड प्रसाद महं श्री सोमान्वये महं श्री आसाराज सुतमहं श्री तेजपालेन श्री मत्पत्तन वास्तव्य मोढ ज्ञातीय ठ० जाल्हण सुत ठ. आस सुताया ठकुराज्ञी संतोषा कुक्षी संभूताया महं श्री तेजपाल द्वितीय भार्या महं श्री सुहडा देव्याः श्रेयोर्थ......... ( यहां से आगे का हिस्सा टूट गया है परंतु दूसरे ताक के लेख में वह इस प्रकार है। " एत गिगदेव कुलिका खत्तकं श्री अजितनाथ बिंबंच कारितं ।"
इस लेख में जाल्हण और आस को ठ. [ ठकुर ठाकुर ] लिखा है । इस कारण यह अनुमान किया जाता है कि वे जागीरदार हों । दूसरे लेखों में वस्तुपाल के पिता आसराज वगैरा को भी ठ. लिखा है। राजपुताना
और मालवे में अबतक जागीरदार चारण कायस्थ जागीरदारों को ठकुर ही कहते हैं । देवास [ मालवा ] के प्रसिद्ध पोरवाड कुल को अब भी ठाकुर पदवी है। ये देवास राज्य के जागीरदार तथा चौधरी होकर इन्हें राज्य दरबार में बहुत मान सन्मान मिलता है।
आबू के उक्त लेख में तथा अन्य कई लेखों में नामों के पहिले "महं" लिखा मिलता है जो “ महत्तम के" प्राकृत रुप “ महंत' का संक्षिप्त रुप होना चाहिये । “ महत्तम" [ महंत ] उस समय का एक खिताब होना अनुमान होता है, जो प्राचीन काल में मंत्रियों (प्रधानों) आदि को दिया जाता हो । राजपुताना और गुजरात में अबतक कई महाजन " मूता” और “ महता" [ मेहता] कहलाते हैं, जिनके पूर्वजों को यह किताब मिला होगा; जो पीछे से बंशपरंपरागत होकर वंश के नाम का सूचक होगया हो। “ मूता" आर “ महता" यह दोनों महत्तम [महंत ] के अपभ्रंश होना चाहिये.
[सिरोही का इतिहास-गौरीशंकरजी ओझा कृत].