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यदि यह भेद सं. १४३६ के पूर्व का होता तो इस संबंध का उल्लेख न्यूनाधिक्यता से इस के पूर्व के लेखों में अवश्य मिलता । इन सब बातों से यही निष्कर्ष निकता है कि, संवत् १४३३ के पहिले ही कोई एसा महत्व का कारण हुआ होना चाहिये और उसका उत्तरदायित्वभी ऐसी महत्व पूर्ण व्यक्ति के तरफ होना चाहिये कि जिस के कारण महाजनों की चौरासीही ज्ञातियों में यह भेद विप्लव हुआ ।
अब हमें देखना है कि इस भेद का स्वरुप क्या है । यह भेद स्वतंत्र ज्ञाति तो नहीं है ? यदि यह स्वतंत्र ज्ञाति होती तो जैसी श्रीमाली ज्ञाति में से निकली अन्य ज्ञातियों के नाम हैं वैसे ही इन के होते और मूल ज्ञातियों के नामसे दसा वीसा संलग्न न रहते; परंतु ऐसा नहीं है । जिन जिन ज्ञातियों में यह भेद हुआ है, उन उन सभी ज्ञातियों के मूल नाम दसा वीसा के साथ जुडे हुए हैं । यथाः
"दशा श्रीमाली, वीसा ओसवाल, दसा लाड, वीसा पोरवाड"
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इस पर से यह स्पष्ट है कि " दसा वीसा कोई स्वतंत्र ज्ञाति नहीं है; किन्तु भिन्न भिन्न ज्ञातियों में हुई मत भिन्नता के कारण पडे हुए भेद उर्फ ( तंड ) हैं । अब हम इस निर्णय तक पहुंच चुके हैं कि सं. १४३३ के पहिले गुजरात की 'महाजन ज्ञातियों में ही कोई महत्व के कारण से यह भेद तट ( तड ) उपस्थित हुए हैं, जो कि आज तक उस मत