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यही है कि वृद्ध शाखा श्रेष्ठता सूचक होने से उसका उपयोग लोक अधिक करते हों तथा लघु शाखा शब्द लघुता का दर्शक होने के कारण उसका उपयोग करने में लोक अनमान करते हों ।
सूरिजी के लेख संग्रह से तथा अन्योन्य स्थलों के लेखों से पाया जाता हैं कि, लाड, कपोल, मोढ नागर, वाघेला, नेमा, खंडायता, डिसावल, आदि गुजरात की सभी महाजन ज्ञातियों में प्राचिन काल से दसा बीसा का भेद है।
इस प्रकार श्रीयुक्त बाबू पूर्णचंद्रजी नाहर के जैन लेख संग्रह के तीनों खंड देखने से मालुम होता है कि, उन में उल्लिखित सतरह अठराह ज्ञातियों में से केवल श्रीमाल, पोरवाड तथा ओसवाल इन्हीं गुजरात वासियों में दसा बीसा का भेद है; परंतु अग्रवाल, पल्लीवाल आदि गुजरात के बाहर की ज्ञातियों में इस भेद का उल्लेख नहीं है । अर्थात इस भेदा भेद का कारण गुजरात में ही उपस्थित हुआ होना चाहिये और वह भी संवत् १४०० पश्चात्; क्योंकि सं. १४४३ के पहिले के किसी लेख में ऐसा उल्लेख अभी तक नहीं मिला है । विक्रम की आठवीं शताब्दी तक महाजन ज्ञातिसे संबंध रखने वाले लेख मिलते हैं अतः इस समय तक का महाजन ज्ञाति का स्वरुप समझने के विश्वास पात्र साधन उपलब्ध हैं । इन सं. ८०० से सं. १४३३ तक के किसी लेख में दसा वीसा या वृद्ध लघुशाखा का उल्लेख नहीं है