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वा दसा वीसा मानते मानते सं० १२७५ से आजतक लगभग ७११ वर्ष हो चुके । वीस वर्ष की एक पीढी इस न्याय से उस समय के पश्चात् प्रायः ३५ पीढियां हो चुकी, परंतु अब मी दसा तो दसा ही रहे उनमें उच्चता न आई । विधवा जात पुत्रों के साथ स्त्राने में यदि इतनी पीढियों से भी अधिक तक मनुष्य को नीचता प्रात्प होती है तो होटलों में तथा रेल्वे में कई समय निम्न श्रेणी के लोगों के साथ भोजन करने में अथवा अभक्ष्याभक्षियों को ज्ञाति में सम्मिलित रखने में हम को न मालुम कितनी पीढियों तक नीचत्व प्रात्प होना चाहिये; परंतु इसका कोई विचार करने वाला है नहीं । बादशाही समय में हिंदुसे मुसलमान बने हुए अब शुद्ध हो सकते हैं परंतु दुर्भाग्य वश दसा बीसा का ऐक्य होना संभवनीय नहीं। क्या ! पाठक इसका विचार करेंगे ? पोरवाड ज्ञातिका -हास हो रहा है तो भी दला बीसा, मालवी, गुजराती, मारवाडी, श्रीमाली, जांगडा, पद्मावती, जैन, वैष्णव, आदि भेद तो जैसे के तैसे प्रचलित हैं। हमारा इतिहास आज सप्रमाण सिद्ध कर रहा है कि, उक्त भेद कोई भेद नहीं है । दसा बीसा के अतिरिक्त बाकी सभी भेद केवल निवास स्थान भिन्नता तथा धर्म भिन्नता के ही हैं । हैं सब प्राग्वाट [ पोरवाड ] फिर ऐसा द्वैत, ऐसा भेदभाव क्यों ? जब प्रवास के सुलभ साधन न थे, पत्र व्यवहार की सूव्यवस्था न थी, जान माल सुरक्षित न था तब के पडे हुए भेदोंको आज भी वैसे ही मानकर