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सकता । ऐसे महान पुरुष का चरित्र जैन साहित्य में न होना सखेदाश्चर्य की बात है । विमलसे ४०० वर्ष पीछे 'लावण्य समय' नामक जैनाचार्य विक्रम सं. १५६८ में छन्द बद्ध 'विमल प्रबंध' नामका एक ग्रंथ लिखा है, परंतु उसमें सत्य की अपेक्षा कवि कप्लना अधिक है।
विमल प्रबंध पढने के पश्चात् ओझाजी ने जो ऐतिहासिक सस्य सार उस से खींचा है वह ऐसा कि,
विमल प्राग्वाट ज्ञाति का श्रीमाल :२) गोत्र का महाजन था। वह निनग का प्रपौत्र, लिहर का पौत्र और वीरका पुत्र था। एक बार यह गुजराथ का चालुकय राजा भीमदेव का दंडनायक हुआ और वि. सं. १०८८ में उसने आबू पर विमल वसहि नामका आदिनाथ का मंदिर बनवाया । इस मंदिर में भी उमके बनने के समय की कोई प्रशास्ति नहीं लगाई गई। इसी कारण विमल और उसके कुटुम्ब का वास्तविक चारत्र अंधःकार में ही है।
आधुनिक खोज से मिले हुए शिलालेखों में से केवल तीनही पसे हैं जिनमें विमल का कुछ वृत्तांत मिलता है । पहिला शिलालेख वि. सं. १२०२ का है जिस से पायाजाता है कि श्रीमालफुल और प्राग्वाट वंशमें धर्मात्मा निन्नक हुआ। वह बहुत श्रीमान था, परंतु किसी करण संपत्ति नष्ट होजाने से भिन्नमाल छोडकर वह गुजरात के गांभू ग्राममें जा बसा । वहां