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( १२० )
वर्षप्रदीपकम् ।
विंशोपकात्मकबलम् ।
र. | चं. मं. बु. गु. शु. श. ११·११ | १३| ८ ७ १४ १० ३८४८ | ४७| ११ ५० 0 १० ४५० ४५० ३०|३०|३०| म. म. पू. म. म. पू. म.
चन्द्रार्कारेज्याः परस्परं मित्राणि शेषाश्च ॥
अब अन्य आचार्यके मतकी स्थिरमैत्री लिखते हैं: - चन्द्र, सूर्य, मङ्गल, गुरु ये परस्पर मित्र जानना और शेष रहे बुध, शुक्र, शनि, ये परस्पर मित्र
जानना ॥ २९ ॥
इतरथा रिपवः ॥ ३० ॥
ऊपर कहे हुए मित्रग्रहसे जो शेष रहे वे शत्रु होते हैं ॥ ३० ॥
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स्थिरमैत्रीचक्रम् |
र. चं. मं:
चं. मं. र. मं. र. चं.
ཀྱུ
गु.
गु.
बु. शु. बु. शु. बु. शु.
श.
श. श.
दु.
शु.
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गु. शु.
र. चं.
मं.
२९ ॥
बु.
श.
श.
शु.
बु.
र. चं. बु. शु. र. मं. र. चं.
मं. गु. ST.
चं. ग. मं. गु.
मित्र.
स्वस्वाधिकारबलार्द्ध मित्र बलं तदर्थं शत्रुभे शेषं प्राग्वदित्येके३१ ॥ इस स्थिरमैत्रीके मित्रशत्रुके अनुसार पञ्चवर्गबल लानेकी रीति कहते हैं:गृह ३० हदा १५ द्रेष्काण १० नवांश ५ के कहे हुए अपने अपने राशिके बलको स्वराशिगत ग्रहमें यथावास्थित ( गृहमें ३० हदामें १५ द्रेष्काणमें १० नवांश में ५ ) ही जानना और अपने अपने स्वका आधा आधा बल मित्रराशिगत ग्रहमें और मित्रराशिगत ग्रहका आधा आधा बल शत्रुराशिगत ग्रहमें जानना, अर्थात् स्वमें पूरा, मित्रमें स्वका आधा, शत्रुमें मित्रका आधा लिखना, जैसे- गृहमें स्वराशिका ३० अंश बल है, उसका आधा १५, मित्र
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