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( १२२ )
वर्षप्रदीपकम् ।
भादयोऽकशांता द्वादश वर्गाः ॥ ३२ ॥
स्वगृहको आदिले द्वादशांशपर्यंत ( स्वगृह १ होरा २ द्रेष्काण ३ चतुर्थीश ४ पंचमांश ५ षष्ठांश ६ सप्तमांश ७ अष्टमांश ८ नवमांश ९ दशमांश १० एकादशांश ११ द्वादशांश १२ ) द्वादशवर्ग होता है ॥
३२ ॥
भाद्यधिपाः प्राग्वत् ॥ ३३ ॥
राशियों के स्वामी प्रथम कहे समान जानना ॥ ३३ ॥ विषम सूर्यशशिनोः समर्क्षे व्यत्ययेन होरा ॥ ३४ ॥ विषमराशिमें प्रथम सूर्य, दूसरे चन्द्रकी होरा होती है और समराशिमें विपरीत अर्थात् प्रथम चन्द्र द्वितीय सूर्यकी होरा होती है ॥ ३४ ॥
स्वेषु नवशा द्रेष्काणपाः ॥ ३५ ॥
प्रथम द्रेष्काणमें अपनी राशिका स्वामी, दूसरे (मध्य) द्रेष्काण में अपनी राशिसे पांचमी राशिका स्वामी, तृतीय ( तीसरे ) द्रेष्काण में अपनी राशि से नवमी राशिका स्वामी, द्रेष्काणका स्वामी जानना ॥ ३५ ॥
केचित्प्राग्वत् ॥ ३६ ॥
कोई आचार्य जो पंचवर्गमें प्रथम द्रेष्काण कहा है वही करना ऐसा कहते हैं ॥ ३६ ॥
स्वक्षज केन्द्रेशा वेदांशपाः ॥ ३७ ॥
अपनी राशिसे प्रथम चतुर्थीशमें अपनी राशिका स्वामी, दूसरेमें ४ चौथी राशिका स्वामी, तीसरे में सातवीं राशिका स्वामी चौथेमें १० दशमी राशिका स्वामी चतुर्थांशका स्वामी होता है ॥ ३७ ॥
ओज भौमायज्ञसिताः समर्क्षे प्रतिलोमतः शशिपाः ॥ ३८ ॥ विषम (एक) राशिमें प्रथम पंचमांशमें भौम दुसरे में शनि तीसरे में
१ पंदरह १५ अंशकी एक १ होरा होती है ( ० अंशसे १५ अशतक प्रथम होरा १ अंश से ३० अंशपर्यंत दूसरी होरा हो ) ।
२ दशअंशका ९ द्रेष्काण होता है ।
३ एकराशिके ४ चार भागको कहते हैं, एक चतुर्थांश विभाग ७ अंश ३० कलाका होता, है
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४ एकराशिके ९ पांच में भागको कहते हैंएक पंचमांश ६छः अंशका होता है ।
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१
60
३०
चतुर्थीशविभाग० ।
३ ४
२
१५
०
२२
३०.
३० अंश.
०
कळा.
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