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दुरूह कार्य अभी विद्वानों के समक्ष है, क्योंकि आगमों के पाठों में बहुत अधिक परिवर्त हो गया है। यदि यह सब संस्थायें आपस में सहयोग करें तो आगमी दस-पन्द्रह वर्षों में आगमों के प्रामाणिक शुद्ध संस्करण तैयार हो सकेंगे। दिगम्बर परंपरा में षटखण्डागम का, कसायपाहुड का, उनकी धवला, जयधवला आदि टोकाओं के प्रकाशन का महान कार्य हुआ है। ये ग्रंथ जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं फिर भी इन ग्रन्थों पर शोध-परक दृष्टि से कार्य करना अभी भी शेष है । अभी तक जैनागमों का समीक्षात्मक अध्ययन कम ही हो पाया है। यह कार्य करना अभी भी शेष है।
जैन साहित्य के प्रकाशन को दृष्ट से अन्य संस्थाओं से वोर सेवा मंदिर दिल्लो, प्राकृत भारती जयपुर, महावीर जैन ग्रन्थ अकादमी जयपुर, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर ने भी महत्वपूर्ण कार्य किया था, किन्तु अब यह समाप्तप्राय ही है । शोध की दृष्टि से अभी तक जैनविद्या के विविध पक्षों पर चार सौ (४००) से अधिक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं। उनमें से सभी तो प्रकाशन योग्य नहीं है किन्तु अधिकतर प्रकाशन के योग्य हैं और जैन प्रकाशन संस्थाओं को उनके प्रकाशन में रस लेना चाहिए। यद्यपि मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि शोध के क्षेत्र में जो समीक्षात्मक और पैनीदृष्टि अब भी पाश्चात्य विद्वानों में देखने को मिलती है उसका भारत में अभाव ही है। अब तो स्तरीय शोध निबन्ध भी देखने को नहीं मिलते हैं। हमें प्राकृत एवं जैन विद्या के क्षेत्र में इस कमी को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
विगतवर्षों में जैन परंपरा में अनेक अभिनंदन और स्मृतिग्रंथ प्रकाशित हुए हैं और उनमें कुछ स्तरीय शोध निबंधों का प्रकाशन हुआ है किन्तु अधिकांश विवरणात्मक हैं-समस्यामूलक नहीं है। आज करने योग्य कार्य यह भी है कि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और अभिनन्दन एवं स्मृतिग्रंथों में जो स्तरीय निबंध प्रकाशित हुए हैं उनकी सूची प्रकाशित की जाये और यह प्रयत्न किया जावे कि सभी निबंध जैन शोध संस्थानों में अध्येताओं को प्राप्त हो सके। इसी प्रकार प्रकाशित और अप्रकाशित जैन ग्रंथों की सूची का भी प्रकाशन होना आवश्यक है। इस क्षेत्र में सर्व प्रथम जिनरत्नकोश का प्रकाशन हुआ था। इसी प्रकार छोटेलाल जैन द्वारा संकलित Jaina Bibliography दिल्ली से पुनः प्रकाशित हुई है किन्तु अभी तक ऐसी कोई व्यापक सूची जो श्वेताम्बर-दिगम्बर परंपरा के सभी प्रकाशित ग्रंथों और निबंधों को समाहित करती हो प्रकाशित नहीं हुई है। मुझे जानकारी मिली है कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम यह कार्य कर रहा है जो संतोष का विषय है जैन विद्या के क्षेत्र में उदीयमान संस्थाओं में जैन विश्वभारती, लाडनं और भोगीलाल लहेरचंद भारतीय
ति विद्या मंदिर, देहली तथा जैनोलोजिकल रिसर्च फाउन्डेशन, मद्रास का नाम सामने आता है। इसी प्रकार दिगम्बर परंपरा में महावीरजी में जैन विद्या संस्थान की स्थापना हुई है। यद्यपि यह नवोदित सभी संस्थान आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हैं किन्तु कार्य करने में सक्षम जैन विद्या के विद्वानों की कमी इनकी प्रगति में अवरोध बनी हुई है।
यद्यपि ज्ञान और अध्ययन की प्रवृत्ति का विकास तेजी से हुआ है किन्तु प्राकृत भाषा के विद्वानों की तो अभी भी जो कमी है वह चिन्त्य है। इसके दो कारण है एक तो लोगों की रुझान ही कम है क्योंकि इस क्षेत्र में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं समझते हैं दूसरे जो परिस्थिति-विवश
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