Book Title: Parshvanath Vidyapith Swarna Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 21
________________ के विश्वविद्यालयों की उपेक्षा अभी भी इस ओर बनी हुई है। जब तक प्राकृत भाषा का विधिवत् अध्ययन नहीं होता तब तक आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों का अध्ययन भी अधूरा ही रहेगा। आशा है इस ओर विश्वविद्यालय के अधिकारी वर्ग ध्यान देंगे और इस कमी को पूरा करेंगे। साहित्योद्धार के प्रयत्न याकोबी जैसे कुछ विद्वानों ने जैन ग्रन्थों के आधुनिक पद्धति से संस्करण प्रकाशित करके विद्वानों को इस साहित्य के प्रति आकृष्ट किया । आधुनिक युग प्रचार-युग है। अतएव उसका असर जैनों में भी हुआ और इस दिशा में भी प्रयत्न हुए। फलस्वरूप माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, जैन साहित्य उद्धारक फंड ग्रन्थमाला, आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला, मतिदेवी जैन ग्रन्थमाला, जीवराज जैन ग्रन्थमाला, आदि ग्रन्थमालाओं में आधनिक ढंग से जैन पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं। बनारस में पार्श्वनाथ विद्याश्रम की स्थापना सन् १९३७ में की गई थी। प्रारम्भ में तो यह एक छात्रावास ही था किन्तु आज यह एक शोध संस्थान के रूप में विकसित हो गया है। विद्याश्रम ने विभिन्न शोध प्रबन्धों के प्रकाशन के साथ जैन साहित्य के बृहद् इतिहास के निर्माण का काम अपने हाथ में लिया; विद्वानों के सहयोग से यह कार्य कुछ आगे बढ़ा और आज तक इसके सात भाग प्रकाशित हो चुके हैं किन्तु अपभ्रंश, मरुगुर्जर, आधुनिक गुजराती एवं हिन्दी के खण्ड अभी पूर्ण होना है। इसी प्रकार जैन दार्शनिक साहित्य के इतिहास का खण्ड भी अभी तक पूर्ण नहीं हो पाया है यद्यपि इसके लिए मैं स्वयं भी जिम्मेवार हूँ, किन्तु मेरी वृद्धावस्था के कारण अब यह अपेक्षा करना स्वाभाविक ही है कि कोई युवा विद्वान् इस कार्य को हाथ में लेकर पूर्ण करेगा। प्रकाशनों की दृष्टि से विद्याश्रम ने भी लगभग सत्तर (७०) ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं जो जैन विद्या के क्षेत्र में एक स्तुत्य कार्य ही कहा जायेगा। जहाँ तक शोध का प्रश्न है निश्चित ही यह विद्याश्रम एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। प्राकृत एवं जैनविद्या से सम्बन्धित विविध पक्षों पर जितने अधिक शोधकार्य यहाँ हुए हैं और हो रहे हैं उतने भारत के किसी अन्य शोध संस्थान या विश्वविद्यालय में नहीं हुए हैं । इसकी असांप्रदायिक दृष्टि एवं वाराणसी जैसी प्राच्य विद्या को नगरी में इसका स्थित होना इसकी गरिमा में वृद्धि करता है। मैं लक्ष्मीपतियों और विद्वानों दोनों से ही इस संस्थान के विकास में सहयोग का निवेदन करता हूँ। प्राकृत आगम साहित्य के प्रकाशन का कार्य प्रारंभ में भीमशी माणेक मुर्शिदाबाद, उसके बाद देवचंद लालचंद पुस्तकोद्धार फण्ड-सूरत से आचार्य आनंदसागरसूरि के प्रयत्नों से हुआ । स्थानकवासी परंपरा में आचार्य अमोलक ऋषिजी ने सर्व प्रथम हिन्दी अनुवाद के साथ आगमों को प्रकाशित किया । यद्यपि यह संस्करण पाठ शुद्धि की दृष्टि से प्रामाणिक नहीं था। उसके पश्चात् आचार्य आत्मारामजी, तथा युवाचार्य मधुकर मुनिजो ने कुछ आगमों की संस्कृत छाया एवं हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाया। फिर भी संशोधित संस्करणों की दृष्टि से महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित आगम ही अधिक प्रामाणिक माने जा सकते हैं। आचार्य तुलसी के निर्देशन में जैन विश्वभारती, लाडनं में जो कार्य हो रहा हैं वह भी संशोधन की नवीन पद्धति के आधार पर हो रहा है। उनका आगमशब्दकोश भी शोधार्थियों की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सकता है। फिर भी आगमों के प्राचीनतम शुद्ध पाठ तैयार करने एवं संशोधित करने का ( 8 ) Jain Education International For Puvate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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