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परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी
हेमचंद्राचार्य ने जब इस प्रवृत्ति का अर्थात् तद का निषेध कर दिया तब प्राचीन प्रतों में मिलने वाले ऐसे तन्द के प्रयोग प्राचीन प्राकृत में से निकल गए । श्रीमती नीति डोल्ची की यही मान्यता रही है । अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा में से भी ऐसे प्रयोग निकल गये होंगे ऐसा मानना यहाँ पर अर्धमागधी आगम साहित्य' के विद्वानों के लिए अनुचित नहीं होगा ।
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3. I rather believe that Hemacandra is responsible for normalization of the treatment of intervocalic -t-in posterior Mss. - Vide The Prakrit Grammarians, p. 159, f. n. 4 (1972).
4. भाचराङ्ग की प्रतों में से पाठान्तर के रूप मे त=द वाले प्रयोग :- अग्वादि ( खं, खे, सं, जे), अम्खादि (इ० ) 16.1.177; चेदेमि ( शीखं) 1.82,204; चेदेसि (खे. सं, ) 18.2 201; समुस्सिणादि (चू० ) 1.82205; उववादं (चू० ) 1.8.3 209; विमोहायदणं खं ) 1.8.7.228, [ पश्पादे (खे, खं. सं. जे. ) 1.9. 1.272; पादं (खे, खं, जै, इ, हे १, २, ३) 2.6.1.588, 590 इत्यादि, इत्यादि पात्र के स्थान पर पाठान्तर के रूप में पाद कितनी ही बार प्रयुक्त ] पाणादिवातातो (खे, खं, जै) 2 15 779
ध्यान देने की बात यह है कि आचार्य हेमचन्द्र ने त=द का निषेत्र करते हुए ऋतु के लिए उउ शब्द (८.१.२०९) दिया है ( वररुचि उदु शब्द देते हैं) परंतु स्वयं आचराङ्ग में ही 'उदु' शब्द का प्रयोग मिल रहा है- उदुसंधीसु, उदुपग्यि ट्टेसु और (शठ = तर उकुसु - खे, ख; उदुमु चू० ) 2 1.2.335.
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