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के. आर. चन्द्र
उत्पत्ति स्थल से प्राचीन काल से ही अपने साथ लेकर चली है इसमें संदेह नहीं हो सकता । अतः ऐसे ग्रन्थों के सम्पादन में ज्ञ के. स्थान पर शब्द के प्रारम्भ में न और मध्य में न्न को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि जिस प्रकार उत्तरवर्ती पालि में ज्ञ के. लिए ण का प्रचलन हो गया उसी प्रकार अर्धमागधी साहित्य की उत्तरवर्ती हस्तलिखित प्रतियों में ज्ञ=न्न के स्थान पर एण आ गया जो आगमों के अनेक संस्करणों में प्रतिबिम्बित हो रहा है । इस सम्बन्धः में आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध के विविध संस्करणों के प्रथम अध्ययन के विश्लेषण से ऐसा स्पष्ट हो रहा है कि---
(I) शुकिंग महोदय के संस्करण में
प्रारम्मिक ज्ञ = न ९ बार मध्यवर्ती ज्ञ = ण २ सिर्फ आज्ञा = आणा] बार मध्यवर्ती ज्ञ = न ४८ बार आगमोदय समिति के संस्करण में प्रारम्भिक ज्ञ = ण ९ बार
मध्यवर्ती ज्ञ = ण ५० बार (III) जैन विश्वभारती के संस्करण में
प्रारम्भिक ज्ञ = न १ बार प्रारम्भिक ज्ञ = ण १० बार
मध्यवती ज्ञ = प्रण ५० बार (IV) महावीर जैन विद्यालय के संस्करण में
प्रारम्भिक ज्ञ = ण ९ बार मध्यवती' ज्ञ = प्रण ५१ बार
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