Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 147
________________ १३८ के आर. चन्द्र उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि वि० आ० भा० में लगभग ११% हा लोप प्राप्त होता है और यथावत् स्थिति ७०% है । छठी शताब्दी की कृति में यह कैसे हो सकता है ? इस अवस्था के लिए ऐसा माना जाता है कि उस काल मे बढते हुए संस्कृत के प्रभाव के कारण प्राकृत रचनाओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक मात्रा में होने लगा था । जो कुछ भी हो एक बात स्पष्ट है कि नामिक विभक्तियों और क्रिया-रूपों में 'त' का प्रयोग अधिक प्रमाण में मिलता है-क० भू. कृ. 'त', प० ए० व० 'तो', व० का०, तृ० पु०, ए० व० 'ति', और मध्यवर्ती 'त' के कुल १९८ प्रसंगों में से मात्र एक स्थल पर 'त' का 'द' ( दीसदि-५३) और लोप मात्र १३ स्थलों पर मिलता है जबकि 'त' की यथावत् स्थिति १८४ स्थलों पर उपलब्ध है। इस अवस्था का कारण यह हो सकता है कि रचयिता को भाषा का यही स्वरूप उस समय मान्य था । एक अन्य 'त' प्रत जो उपलब्ध है उसमें लोप १५५ मिलता है और यथावत् स्थिति तो ७०% ही है । इनके साथ जब 'हे' एवं 'को' संस्करणों की तुलना करते हैं तो उनमें लोप ४८% और यथावत् स्थिति ४३% रहती है । घोषीकरण का प्रमाण क्रमशः घटता जाता है, –'जे' में १८, 'त' में १४ तो 'हे' और 'को' में मात्र ९ प्रतिशत ही रह जाता है। इससे स्पष्ट साबित होता है कि ग्रन्थ के मूल प्राकृत शब्दों में काल की गति के साथ चालू भाषा के प्रभाव के कारण लेहियों और पाठकों के हाथ प्रमादवश ध्वन्यात्मक परिवर्तन बढता ही गया है । इस दृष्टि से वि० आ०भा० का यह विश्लेषण बहुत ही उपयोगी है । इसके आधार से हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यदि कि०आ० भा० की भाषा में कुछ शताब्दियों के पश्चात् इतना परिवर्तन आ सकता है तो फिर आगमग्रन्थों की मूल अर्घमागधी में एक हजार और पन्द्रह सौ वर्षों के बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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