Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ -१४० के. आर चन्द्र भारत में सबसे पहले हुआ था । इतना ही नहीं परन्तु मध्यवर्ती 'न' का 'ण' में परिवर्तन होना भी दक्षिण भारत की अन्य क्षेत्रों को देन है । उत्तर - पश्चिम भारत में प्राप्त ई० सन् प्रथम शताब्दी के तीन लेखों ( पंजतर, कलवान और तक्षशिला, डी.सी. सरकार संस्करण, नं०३२, ३३.३४) की भाषा के विश्लेषण से यह साबित होता है कि उन लेखों की भाषा में लोप ३० प्रतिशत, यथावत् स्थिति ५३ प्रतिशत और घोष - अघोष १७ प्रतिशत मिलता (कुल लोप २७, यथावत् ४७, घोष १३ और अघोष २=८९ प्रसंग ) है । इनमें प्रारम्भिक 'न' का 'ण' में परिवर्तन १०० प्रतिशत है और मध्यवर्ती 'न' का 'ण' ७५ प्रतिशत मिलता है । पश्चिम भारत में नासिक, कण्हेरी और जुनर के शिलालेखों में भी लोप एवं घोषीकरण की प्रवृत्ति अधिक मिलती है । 'न' का 'ण' में परिवर्तन भी अधिक मात्रा में • उपलब्ध हो रहा है । इस ध्वन्यात्मक परिवर्तन की दृष्टि से 'इसिमासियाई' की भाषा का विश्लेषणात्मक अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है । यह भी एक प्राचीन अर्धमागधीं आगम - कृति मानी जाती है । शुक्रिंग महोदय द्वारा संपादित संस्करण में अध्याय नं. १,२,३,५, ११, २९ और ३१ में मध्यवर्ती व्यञ्जनों का • लोप ११ प्रतिशत से ३० प्रतिशत के बीच हैं, यथावत् स्थिति ४५ से ८१ - प्रतिशत है । इन सातों अध्ययनों का औसत है - लोप २७३ प्रतिशत, यथावत् ६०३ प्रतिशत तथा घोष - अघोष १२ प्रतिशत | इसका संपादन मात्र दो प्रतों के आधार से किया गया है । पाठान्तरों की बहुलता नहीं हैं जो हमें अर्धमागधी आगम ग्रन्थों के विभिन्न संस्करणों और उनकी प्रतियों में मिलती है । 'इसिभासियाई' के अल्प प्रचलन के कारण इस ग्रन्थ की भाषा का पीढ़ी दर पीढी विभिन्न हाथों से कायाकल्प न हो सका । यदि इसकी भी अनेक प्रतियाँ विभिन्न कालों में बनती गयी होती तो इसकी भी वही दशा होती जो अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों की हुई हैं । एक और विशेषता ध्यान देने योग्य यह है कि इस संस्करण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162