Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 150
________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अE मागधी १४१ शुविंग महोदय द्वारा मध्यवर्ती 'त' का आचारांग की तरह सर्वथा लोप नहीं किया गया है परन्तु अलग-अलग अध्ययनों में अलग-अलग प्रमाण में मिलता है। लोप और यथावत् स्थिति क्रमश: इस प्रकार उपलब्ध हो रही है - अध्याय १-३२।६८, २-०।१००, ३१५/८५, ५-२८।७२, ११-२७/७३, २९-४८।५२ एवं ३१ - २१।७९ । इस स्थिति के आधार से श्री शुबिंग महोदय द्वारा सम्पादित आचारांग में उपलब्ध मध्यवर्ती व्यंजनों का ५८ प्रतिशत लोप किस तरह स्वीकारा जा सकता है । उनके द्वारा प्रयुक्त ताडपत्रीय प्रत ( संवत् १३४८ ) में ही व०का०, तृ०पु०, ए० ० के प्रत्यय 'ति' का प्रयोग ५० प्रतिशत और उसी प्रकार 'इ' का प्रयोग ५० प्रतिशत ( प्रथम अध्ययन के विश्लेषण के अनुसार ) है । उन्होंने पाठान्तरों में 'ति' नहीं दिया है और, सर्वत्र 'इ' को ही अपनाया हैं । श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित आचारांग में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप २४ प्रतिशत है परन्तु पाठान्तरों के आधार से ही ऐसे पाठ स्वीकार किये जाने योग्य हैं जिनमें मध्यवर्ती वर्णलोप नहीं है । इस सूक्ष्म अध्ययन से ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि (अर्धमागधी जैसी प्राचीन भाषा के प्राचीन ग्रन्थों की भाषा भी प्राचीन ही होनी चाहिए | कालान्तर में हस्तप्रतों में जो विकार जाने-अनजाने प्रमादवश आगये हैं वे सब त्याज्य माने जाने चाहिए । मूल ग्रन्थ की हस्तप्रतों, चूर्णि - ग्रन्थ या टीका जो भी हो जिस किसी में भी यदि भाषिक दृष्टि से प्राचीन शब्द मिलते हो और अर्थ की संवादिता सुरक्षित रहती हो. तो उन्हीं पाठों को स्वीकार किया जाना चाहिये । अर्धमागधी के प्राचीन आगम-ग्रन्थों के सम्पादकों के लिए इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो रहा है कि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ की विभिन्न कालों में जितनी अधिक प्रतिलिपियाँ उतरती गयीं उतने हि प्रमाण में उस ग्रन्थ की भाषा के मूल स्वरूप में परिवर्तन भी आता गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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