Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 154
________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी थ, द, ध. मिलते हैं । ग्रन्थ के 'को' एवं 'हे' संस्करणों में मध्यवर्ती त, एवं क के बदले में क्रमशः य, ह, य, ह एवं य वर्ण स्पष्ट है कि मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप अधिक मात्रा में पाया जाता है जैसा कि ऊपर पहले ही बतला दिया गया है । जब तक अन्य प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियाँ नहीं मिली थीं तब तक इन संस्करणों को ही प्रमाणित माना जाता था और मध्यवर्ती व्यञ्जन - लोप वाले शब्द ही लेखक की भाषा हो ऐसा समझा जाता रहा परन्तु 'जे' प्रत मिलने से सारा तथ्य ही बदल गया । यह प्रत सबसे प्राचीन है और उसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है जिसमें लेखक के ही शब्दों की अपनी वर्ण- व्यवस्था सुरक्षित है। इसमें मध्यवर्ती 'त' की यथावत् स्थिति होने के कारण किसी विद्वान को यह शंका हो कि इसमें भी 'त' श्रुति आ गयी है तो उसका निराकरण इस बात से होता है कि ग्रन्थकार ने जो स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी है उसमें भी मध्यवर्ती 'त' की वही स्थिति हैं । अतः बाद में 'त' आ गया हो ऐसा कहना उचित नहीं लगता । 'जे' प्रत के शब्दों और स्वोपज्ञवृत्ति के शब्दों की वर्ण व्यवस्था में पर्याप्त समामता है यह ऊपर बतलाया जा चुका है । कोई यदि ऐसा कहे कि स्वोपज्ञ - वृत्ति की प्रत ई० स० १४३४ की हैं अतः उसमें भी 'त' श्रुति आ गयी होगी । इसके उत्तर में यह भी तो प्रश्न होता है कि तब फिर 'क' के लिए 'ग', 'थ' के के लिए 'घ' और 'द' के लिए 'द' का प्रयोग दोनों प्रतों में मिलता है उसका क्या उत्तर होगा । अतः 'त' श्रुति की शंका करना निराधार बन जाता है । लेखक को जो मान्य थी वैसी ही वर्ण-व्यवस्था उन्होंने मध्यवर्ती शब्द-रूपों में अपनायी है । 'को' एवं 'हे' संस्करणों में वर्ण-सम्बन्धी जो परिवर्तन पाया जाता है वह लेहियों और पाठकों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only १४५ www.jainelibrary.org

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