Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 139
________________ १५. मूल अर्धमागधी भाषा के यथा स्थापन में विशेषावश्यकभाष्य की जेसलमेरीय ताडपत्र की प्रति भाषिक दृष्टि से उपलब्ध प्राचीन पाठों द्वारा एक दिशा- सूचन [ कालान्तर से ग्रंथ की प्राचीन भाषा का मूल स्वरूप बदल जाने का एक ज्वलंत उदाहरण ] ग्रन्थ हैं जिनकी में उत्तरवर्ती 1 अन्तिम वाचना पाँचवीं - छठीं वाचना का समय ई० .. जैन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में कुछ ऐसे रचना प्राचीन मानी जाती है, परन्तु उन ग्रन्थों भाषा के भी दर्शन होते हैं । आगमों की शताब्दी में की गयी जबकि उनकी प्रथम स० पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है । महावीर और बुद्ध समकालीन माने जाते हैं परन्तु पालि भाषा के प्राचीनतम त्रिपिटक -ग्रन्थों और अर्द्धमागधी के प्राचीनतम आगम ग्रन्थों की भाषा में बहुत अन्तर पाया जाता है, यहाँ तक कि सम्राट् अशोक के शिलालेखों में भाषा का जो स्वरूप प्राप्त होता है उससे भी काफी विकसित रूप अर्धमागधी आगम ग्रन्थों की भाषा में उपलब्ध हो रहा है । होना ऐसा चाहिए था कि कम से कम प्राचीनतम जैन आगम ग्रन्थों में सम्राट अशोक के पहले का तथा प्रथम जैन आगम - वाचना के काल का यानि चौथी शताब्दी ई० स० पूर्व का भाषा - स्वरूप मिले परन्तु ऐसा नहीं है । भाषा की इस अवस्था का कारण क्या हो सकता है ! आगमोद्धारक मुनि श्री पुण्यविजयजी ने कल्पसूत्र की प्रस्तावना में स्पष्ट कहा है कि समय की गति के साथ-साथ चालू भाषा के प्रभाव के कारण पूर्व आचार्यों, उपाध्यायों और लेहियों के हाथ उन ग्रन्थों में 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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