Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 140
________________ परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी जाने-अनजाने भाषा-सम्बन्धी परिवर्तन आ गये हैं जो उनके शिष्य अध्येताओं को अनुकूल एवं सरल रहे होंगे। आगमग्रन्थों के शब्दों में वर्णविकार की जो बहुलता आज विभिन्न हस्तप्रतों में देखने को मिलती है वह इसी प्रवृत्ति का नतीजा है । इन विषमताओं के कारण आगमों के विभिन्न संस्करणों में एक ही शब्द के अनेक रूप अपनाये गये हैं । श्री शुबिंग महोदय ने तो इस गुत्थी और उलझन से छुटकारा पाने के लिए और भाषा को एकरूपता देने के लिए विवश होकर मध्यवर्ती व्यंजनों का सर्वथा लोप ही कर दिया है चाहे चूर्णि अथवा ग्रन्थ की हस्तप्रतों में इस प्रकार के पाठ मिले या न भी मिले । वर्ण-विकार की दृष्टि से ही नहीं परन्तु रूप-विन्यास की दृष्टि से भी कई ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पर प्राचीन के बदले में उत्तरवर्ती रूप अपनाये गये हैं। शुबिंग महोदय के सिवाय अन्य विद्वान् सम्पादकों के संस्करणों में भी समानता एवं एकरूपता नहीं है । किसी में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप अधिक है तो किसी में कम । श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित संस्करण में मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप कम मात्रा में मिलता है परन्तु उस संस्करण में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर मूल हस्तप्रतों, चूर्णि एव टीका के आधार से उत्तरवर्ती पाठों की जगह पर प्राचीन पाठ (शब्द-रूप) स्वीकार किये जा सकते हैं। सम्पादन की पद्धति-विषयक नियमों में भी परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होती है, यथा--अनेक प्रतियों में जो पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय या प्राचीनतम प्रत में पाठ उपलब्ध हो उसे लिया जाय वा चूर्णि का पाठ लिया जाय या टीकाकार का पाठ लिया जाय अथवा भाषिक दृष्टि से जो शब्द-रूप प्राचीन हो उसे अपनाया जाय ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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