Book Title: Paramparagat Prakrit Vyakarana ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Jain Vidya Vikas Fund Ahmedabad

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Page 142
________________ १३३ ' परम्परागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी में वि० आ०भा० की हरेक गाथा का प्रथम शब्द मूल रूप में प्राकृत भाषा में दिया गया है। इससे इतना लाभ तो अवश्य है कि मूल रचनाकार ने प्राकृत शब्दों को किस स्वरूप में प्रस्तुत किया था उसे हम स्पष्ट रूप से जान सकते हैं । मूल ग्रन्थ के कर्ता आचार्य जिनभद्र का समय ई० सन् की छठी शताब्दी माना गया है (स्वर्गवास ई० सन् ५९३) और जेसलमेर की ताडपत्रीय हस्तप्रत जिस आदर्श प्रत पर से लिखी गयी थी उसका समय ई० सन् ६०९ है ऐसा श्री दलसुखभाई मालवणिया का मन्तव्य है । अतः वि० आ० भा० की जो प्राचीनतम प्रत मिली है वह रचनाकार से लगभग ३०० से ३५० वर्ष बाद की ही है, इसलिए रचनाकार की जो मूल भाषा थी उसमें दूरगामी परिवर्तन की सम्भावना कम ही रहती है । स्वोपज्ञवृत्ति में प्राप्त शब्दों के साथ तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा । ग्रन्थ के 'हे' एवं 'को' संज्ञक प्रकाशित संस्करणों के शब्दों में जो ध्वनिगत परिवर्तन मिलता है वह मूल अर्धमागधी भाषा के यथास्थापन के लिए 'एक आदर्श एवं अति महत्त्वपूर्ण दिशा-संकेत करता है । वि.आ०भा० का ध्वनिगत विश्लेषण (गाथा नं. १ से १०० जिनमें सभी प्रतों के पाठान्तर दिये गये हैं ___ (क) ग्रन्थ की स्वोपज्ञ-वृत्ति में दिये गये हरेक गाथा के प्रारम्भिक शब्दों का भाषिक (ध्वनिगत) विश्लेषण : यथावत् कुल लोप मध्यवर्ती अल्पप्राण ९ १३% मध्यवर्ती महाप्राण ० ०% संयोग ९ १०% घोष-अघोष ९ १३% ६ ३५% १५ १८% ४९ ७४% ११ ६५% ६० ७२% Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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